आहत व नेक लोगों के नाम एक खत

Posted by हारिल On Friday, April 24, 2015 0 comments

जानता हूं, यह ठीक समय नहीं है कि आप लोगों से कोई कड़वी बात की जाए. लेकिन, फिर भी यही मौका है कि मुझ जैसा खाकसार आपसे कुछ कह सके. आप हद दरजे के शरीफ होने के बाद भी देश, समाज, धर्म आदि के नाम पर बेहद आक्रामक लोग हैं. असहमति को आप हवा में उछाला गया कोई ऐसा पदार्थ मानते हैं जिसे बाद में आपकी सहमति वाली जमीन पर ही गिरना है. चूंकि इस समय आप नेक लोग, बेहद सदमे में हैं इसलिए मैं इस मौके का फायदा उठाना चाहता हूं. सबसे पहले तो मैं आप लोगों को बधाई देना चाहता हूं कि आपने तेजपाल के जुर्म की क्या खूब सजा दी. सोशल साइटों पर उनकी बेटी पर हमला बोल कर. बिल्कुल खाप पंचायतों के अंदाज में. आंख के बदले आंख. दूसरे की बेटी पर गंदी नजर डालने-वाले की बेटी को कैसे बख्शा जा सकता है? क्या हुआ, जो उसने घटना के बारे में सुन कर अपने पिता की नहीं, अपनी पीड़िता दोस्त की मदद की, उसके साथ खड़ी हुई. खैर, क्या मैं जान सकता हूं कि आप लोग कैसे एक साथ महिला की आजादी और परंपरा दोनों के रक्षक हो सकते हैं? खास तौर से उस परंपरा के, जिसमें महिलाओं को हमेशा दोयम दरजे का घोषित किया गया है. जानते हैं, महिला के जिस्म पर कब्जा जमाने की जो इच्छा तेजपाल रखते थे, वह उन्हें परंपरा ने ही सिखाया है. तेजपाल को कड़ी सजा मिले, इसकी तो आप खूब वकालत कर रहे हैं, लेकिन उस परंपरा के खिलाफ हलफनामा किस कचहरी में दाखिल करेंगे? आप ही यह कहावत दुहराते रहते हैं- ‘घोड़ा और औरत रान तले’. पंजाबी में तो आप खुले आम औरतों को अपने से कमतर मानते हुए कहते हैं कि ‘स्त्रीनी अक्कल एड़ी मा’. गुजराती में जब आप औरतों के लिए सोचते हैं तो कहते हैं कि ‘उसी जवार बाजरी, मुसी नार पाधरी’ (नमक मिलाने से ज्वार- बाजरा और मूसल की कुटाई से औरत दुरुस्त होती है) या फिर ‘रंडनी जात खासदाने ताले रखेलिज भली’ (औरतों की जात जूतों के नीचे ही ठीक रहती है).. किस-किस भाषा के कौन-कौन से जुमले गिनाऊं. हिंदी में तो आपने गालियों की एक लंबी लिस्ट तैयार कर रखी है, जिसके केंद्र में औरत ही है. यकीन मानिए कि आप गजब के लोग हैं, जो एकसाथ दामिनी के साथ बलात्कार के बाद सड़कों पर मोमबत्तियां लिये और फिल्मों में ‘बलात्कार-दृश्य’ रस लेकर देखते पाये आते हैं. तेजपाल का इतिहास तो बहुत छोटा है, पर आपकी परंपरा तो वर्षो से चली आ रही है न! इतिहास के साथ सबसे रोचक बात यही होती है कि हम उसे सुविधा अनुसार याद कर सकते हैं, भूल सकते हैं. लेकिन आप सहृदय लोग ऐसा करेंगे तो कैसे चलेगा? सच-सच कहता हूं, जब कोई औरत किसी पर यौन उत्पीड़न का आरोप लगाती है, तब आपकी ‘जरूर डिमांड पूरी नहीं हुई होगी’ वाली टिप्पणी, आपके अंदर के आदमी का पूरा भूगोल बता देती है.
(28 नवंबर को प्रभात खबर में प्रकाशित)


बुधवार, 09/01/2013

Posted by हारिल On Tuesday, January 8, 2013 0 comments

कभी कभी लगता है तारीखों का कोई महत्व नहीं होता, अगर उसे दर्ज़ न किया जाय। सोचता हूँ हर तारीख को दर्ज़ करूँ, डायरी लिखूँ । क्या मैं शुरुआत कर चुका हूँ शायद! एक सामान्य से बुधवार को खास बनाने का प्रयास। डायरी लिखने पर लिखने के बारे में सोचते हुए मन में बार बार पुराने परिचित का ध्यान आ रहा है उस ने अभी अभी आर चेतन क्रांति की ताज़ा कविता पर सवाल उठाते हुए कहा की क्या यह साहित्य है, बड़ी कोफ्त होती है  वह लड़का कॉलेज के दिनों में कविता करना चाहता था आज कल क्या कर रहा है पता नहीं ... क्या लेखन जैसी प्रतिरोधी क्रिया को किसी खास संस्थानिक साँचे में फिट किया जा सकता है, मंटो ज़िंदगी भर इसी की मार झेलते रहे।  'क्या यह साहित्य है' के सवाल ने ही उन्हें जीते जी उस सार्वजनिक सम्मान से वंचित रखा जिसके वो हकदार थे...
और यह साहित्य से ज़्यादा व्यक्तिगत स्वतंत्रता का मामला है हर जगह 'तरीके' का सवाल रूढ़िवादियों (कानूनचियों) के लिए बड़ा हथियार है। हम कितने सीमित अर्थों में आज़ाद हुए हैं।
आज के दिन में मैं आर चेतन क्रांति की कविता को भी दर्ज़ करना चाहूँगा, चेतन जी की कवितायें हमारे समय की कवितायें हैं, आप बैंक में हों तो उनकी कविता, आप दफ्तर में हों तो उनकी कविता, सड़क पर हों तो उनकी कविता, हरे हुये हों या जीते हुए हों उनकी कविता साहस देती है
यह उनकी ताज़ी कविता जो उन्होने फेसबुक पर साझा की है


इसी बीच एक ताऊ आये। समस्या के निष्कर्ष पर पहुचने की जल्दी में बोले- दिल्ली, यहाँ का नंगा कल्चर, औरतें और उनकी लक्ष्मण रेखाएं- टाइप, कुछ-कुछ। फिर ऐसे ऐसे कई निकले -- टीवी से, अख़बारों से। मेट्रो और बसों में बिलबिलाते पाए गए। फुंफकारते। उन्हीं को समर्पित .....

कविता: आर चेतनक्रांति : अब मन की मेहनत कर ताऊ !

मैंने यह कब कहा ताऊकि तेरे पिछवाड़े में गूदा कम हैऔर 'सांथल पर घसराऊ'* में तेरे घी-पीये साँड
कमजोर हो गए हैं

मैंने तो बस यह कहा
कि 'यो छोरी' अलग सै

वह डर नहीं रही
बस बचकर निकल रही है
उसे तेरी आँखों से घिन है
कुछ ऐसा है उसके पास
जिसे तेरे हाथ से नहीं,
तेरी आँख से बचाना पहले जरूरी है।
बहुत सूक्ष्म, पर तेरे बाहुबल पर भारी

तू या तेरा कसरती दुधमुँहा
सरियों से उसे छलनी कर दे
तब भी वह रहेगी।

यह वलय
जो उसके नितम्बों से उठकर
हवा में लहर रहे हैं
यह आग!
हाँ ये वही है!
जिसको तूने सदियों ढाँपकर रखा
तापा
अपनी हथेलियों का निर्दय मांस
और आँच दी अपने कुनबे को

वह आँच, उसने अब अपनी कर ली है

संचित मादकता का
यह निर्बन्ध कम्पन
तुझे आमंत्रण नहीं है ताया,
हाथ पीछे! हाथ पीछे, राक्षस!

अपने चीतों को बरज
बता उन्हें
कि जितनी पास दिखती है दिल्ली
उतनी है नहीं
सीली-सकुचार्इ अपनी कचर-फचर बस्तियों में
यह माँ
अपनी जिन बेटियों को पोस रही है
वे तेरे सियार के जाँगर के बहुत-बहुत आगे जा चुकी हैं

वे सिर्फ मोबाइल फोन नहीं हैं
जो उनकी उँगलियों में हरदम बिंधा रहता है
न सिर्फ पगलार्इ खिलखिलाहट
जो बौराए बगुलों के झुंड की तरह
तेरे सिर के ऊपर से गुजर जाती है
न सिर्फ आसमानी जींस
जिसमें सुरक्षित उनकी 'जाँघें
तूझे अपने युकलिप्टसों में दिखती हैं
रातभर जिनकी कौंध
तुझे सोने नहीं देतीं

ताऊ
वे इस सबसे बाहर हैं
अपने माथे में
जिससे तेरी निगाह फिसल-फिसल जाती है
और काले चमकीले बालों के ध्वज में
जो अब लहराया जा चुका है
और जिससे गिरे फूल
समूची सभ्यता चुन रही है

ताऊ,
बेशक
वह भी चाहिए इन्हें
जिसे मुटठी में कसकर तू कहता है-मेरा नेजा
-हाय, मेरा सीधा खड़ा, बलवान नेजा

पर जो उन्हें आखिरकार चाहिए
वह बहुत सूक्ष्म है
नामालूम-सा
कि तेरी हथेली पर धरा रहे, और तुझे पता भी न हो
तू क्या देगा उसे अहमक!

अपने जिस्म के
शतमुखी संगीत में डूबीं
नंगी लड़कियों की यह फौज
अपनी आत्मा की चादर में
रोज़
एक महीन तार डालती है
तैंतीस करोड़ देवताओं की आँखों में मूतकर
जिसे तूने इतने जतन से-
न पहनने लायक छोड़ा!
न ओढ़ने लायक

दो अंगुल की कुरती
और छह अंगुल की पजामी पहनकर
ये उन खेतों को गोड़ने जाती हैं
जिन्हें तुम्हारे लौंडे सिर्फ लूटने जाते हैं
अपने कलछौंहे दिल से निकाल दे
कि ये किसी का बिस्तर गर्म करके आती हैं
बेवकूफ,
ये अपना आपा कमा रही हैं
जिसे इनके पुरखों ने
इनकी रूह से नोच फेंका था
तुम जिनमें आखिरी हो

ताऊ,
अब मन की मेहनत कर
यकीन कर
कुछ चीजें सच में होती हैं
जैसे र्इश्वर, जैसे सच्चार्इ,
जैसे 'इशक'
जिसे ऊपर पेड़ पर टाँगा तूने
और नीचे से ट्रैक्टर खींच लिया
जिसे रौंद डाला तूने
धोती चढ़ाकर
जैसे हव्वा गारा सानती थी घर के लिए

तूने काट दिया गला जिनका
दराँती से
वे भी आखिरी थीं

दिल्ली में उनकी अगली किश्त नहीं है
यह बीज अलग है
यह पौद अलग है
यह फसल अलग है

अपने हल, अपने खुरपे, अपने फावड़े, अपनी लाइसेंसी बन्दूकें,
बाँहों की मछलियाँ, जाँघों का जाँगर, मूँछें,
अपने बेसिर के लोथ शिश्न-योद्धा लड़कों को लेकर
तू जा यहाँ से
निकल, समेट अपना पसारा

आना, जब तेरे मुरैठे के बल कम हो जाएँ
जब तेरे सर में पड़ा मांस का पिंड
हरकत करने लगे
जब तुझे खुद लगने लगे
कि पहलवानी अब बस एक खेल है
जिसे देखकर बच्चे ताली बजाते हैं

इन बच्चियों को बख़्श
हमें इनसे बहुत उम्मीदें हैं।

'सांथल पर घसराऊ-'सांथल का अर्थ 'जाँघ, 'पर' मतलब 'पुर', 'घसराऊ-घिसरने वाला। इस तरह के पद अकसर पशिचमी उत्तर प्रदेश और शायद हरियाणा में भी, गाँवों के नाम होते हैं। लेकिन यह पद इन क्षेत्रों में 'शिश्न' के लिए प्रयोग किया जाता है-यानि जो जाँघ पर घिसरता रहता है।



मृत्यु / अनामिका

Posted by हारिल On Sunday, January 6, 2013 0 comments

उसकी उमर ही क्या है !
मेरे ही सामने की 
उसकी पैदाइश है ! 
पीछे लगी रहती है मेरे 
कि टूअर-टापर वह 
मुहल्ले के रिश्ते से मेरी बहन है !

चौके में रहती हूँ तो 
सामने मार कर आलथी-पालथी
आटे की लोई से चिड़िया बनाती है !
आग की लपट जैसी उसकी जटाएँ 
मुझ से सुलझती नहीं लेकिन 
पेशानी पर उसकी
इधर-उधर बिखरी 
दीखती हैं कितनी सुंदर !

एक बूंद चम-चम पसीने की 
गुलियाती है धीरे-धीरे पर 
टपके- इसके पहले 
झट पोंछ लेती है उसको वह 
आस्तीन से अपने ढोल-ढकर कुरते के !
कम से कम पच्चीस बार 

इसी तरह 
हमको बचाने की कोशिश करती है। 
हमारे टपकने के पहले !
कभी कभी वह 
लगा देती है झाड़ू घरों में! 
जिनके कोई नहीं होता-
उन कातर वृद्धाओं की 
कर देती है जम कर खूब तेल-मालिश।
दिन-दिन भर उनसे बतियाती है जो सो ! 

जब किसी को ओठ गोल किए 
कुछ बोलते देखें गडमड-
समझ लें- वह खड़ी है वहीं
या ऊंघ रही है वहीं खटिया के नीचे-
छोटा-सा पिल्ला गोद में लिये !
बडे़ रोब से घूमती है वह 
इस पूरे कायनात में। 
लोग अनदेखा कर देते हैं उसको 
पर उससे क्या?
वह तो है लोगों की परछाईं ! 
और इस बात से किसको होगा भला इनकार 
आप लांघ सकते हैं सातों समुंदर 
बस अपनी परछाईं नहीं लांघ सकते ।


सच-सच बता दोस्त

Posted by हारिल On Thursday, August 25, 2011 0 comments

निराला


भ्रष्टाचार क्या सच में सबसे बड़ा मसला है

यह भेदता और बेधता है कभी अंदर तक

रात की नींद उड़ायी है कभी इसने

कभी ले लिया है दिन और दिल का चैन

वैसे ही जैसे कभी सवर्ण बिटिया का किसी दलित के बेटू से

या सवर्ण के बेटे का दलित बिटिया से शादी कर लेने के बाद

मचता है कोहराम

होता है वज्रपात

टूट पड़ता है आसमान

सिर्फ मां-बाप, भाई-बहन ही नहीं

फुआ, मौसी, नानी, काकी, मामी...

सब नाक-मुंह फुला लेते हैं

एक झटके में जनम और खून का रिश्ता तोड़ने लगते हैं

सबसे छुपाते रहते हैं या कहते फिरते हैं

नाश कर दिया, कहीं का नहीं छोड़ा करमजला-करमजली

सच-सच बता जिस तरह जाति का मसला रगों में लहू की तरह दौड़ता है

मन में कुंडली मारे बैठा रहता है

और बात-बेबात असली चेहरा सामने ला देता है

वैसा ही कभी भ्रष्टाचार के मसले पर खौलता है खून

भ्रष्टाचार के मसले पर तोड़ते देखा है किसी को रिश्ता

ऐसा करने को सोचते हुए भी किसी के बारे में सोचा है कभी

कुछ नजीर है कि अपने ही भाई, बंधु, फुफा, मौसा, मामा से तोड़ दिया रिश्ता फलां ने

यह कहते हुए कि वे भ्रष्टाचारी हैं

ऐसा करने का साहस जुटाते हुए किसी भींड़ को देखना तो जरूर बताना

सच में भ्रष्टाचार तब डर जाएगा, भाग जाएगा वह

देखना, तब किसी अन्ना-अरूणा-लोकपाल की जरूरत नहीं पड़ेगी!

तू ही बता, क्या आसमान से टपका हुआ कोई शैतान भ्रष्टाचार करता है

तेरे-मेरे अपने ही तो करते हैं न

तो आओ एक बार उनसे रिश्ता तोड़ने की कसम लें

बंद करें उनसे किसी भी किस्म का संवाद

यह कहते हुए कि भ्रष्टाचारी हो आप, क्या बात करें आपसे...

आपने मेरी नींद, चैन सब उड़ा रखी है

सच में दोस्त, देखना उस रोज भ्रष्टाचार की हालत

खत्म हो जाएगा वह, मरने लगेगा अपनी मौत

क्या हम ऐसा एक बार भी करके देखें दोस्त

कई मुखौटों को उतारने की कोशिश करें

या फिर ऐसे ही रामनामी माला जपते रहें कि

एक-दो-तीन-चार

दूर करो ये भ्रष्टाचार...


cant we study present situation like this ?

Posted by हारिल On Thursday, August 18, 2011 0 comments


From EPW
Vol XLVI No.26 June 25, 2011
Fasts, Hunger and Hunger Strikes
By: Anand Teltumbde



How the State has responded to the fasts of Anna Hazare, Baba Ramdev and Medha Patkar and how the media has portrayed them are a study in contrasts and say something about our society.

Anand Teltumbde (tanandraj@gmail.com) is a writer and civil rights activist with the Committee for the Protection of Democratic Rights, Mumbai.





Once a government is committed to the principle of silencing the voice of opposition, it has only one way to go, and that is down the path of increasingly repressive measures, until it becomes a source of terror to all its citizens and creates a country where everyone lives in fear.

Even Harry S Truman, the 33rd presiden­t of the US, the author of the infamous Truman Doctrine to contain communism had this advice to the governments!

Fast and Hunger

It is amusing, that the country which has the distinction of being home to the largest number of hungry people in the world should be shaken by the threat of hunger by a few. But that is what has been happening since Mahatma Gandhi forged this into a weapon. Interestingly, Gandhi referred to it as a fast, not hunger strike, which it actually was. A fast has a religious undertone, as Ed Cole, the founder of the Christian Men’s Network in the United States, candidly stated: “A fast is not a hunger strike. Fasting submits to God’s commands. A hunger strike makes God submit to our demands.” It has a class connotation too. For elites it is a fast, for the commoners, it is a hunger strike. After all how could elites go on a strike? They need to be differentiated from the working classes whose business it is to strike. One is not sure but one commonly confronts this differentiation in practice. Bhagat Singh and his comrades had gone on a hunger strike in Lahore jail in which Jatin Das became a martyr on the 82nd day, marking the limits of human endurance and resolve in the longest hunger strike in world history. On the other hand, fasts, “indefinite” or “unto death” were undertaken by Gandhi and Gandhians many times. The very label of a fast, as it appeared, conveyed the message that it would not be stretched to death and would be concluded before long. But if it is a strike, one could not be sure.

Irom Sharmila

A mere use of labels would not, however, work. The system identifies what you are by the issue you espouse. Take, for instance, the case of Irom Sharmila from Manipur, who has entered the incredible 11th year of a fast unto death. Poor soul, she thought she was following the Gandhian method and declared her protest as a fast unto death whereas what she actually began was a hunger strike. Because the issue she raised was the repeal of the Armed Forces Special Powers Act (AFSPA), which has virtually converted the entire north-east to a military state for the last five decades. It was too radical a demand for a fast; it had to be a hunger strike. The State understood and responded appropriately. While it has taken care to maintain its Gandhian façade by not letting her die (the State has been force-feeding her), it has never heeded her demand.

Sharmila shames India for its pretensions to be a democratic republic. And she is not alone; there has been a long saga of struggles of the Manipuri people, notably women of her ilk. In 2004, in the wake of the rape and murder of Thanglam Manorama­, these brave women had publicly unclothed themselves before the army headquarters and held a placard “Indian Army, Rape Us!”. Even such a shaming protes­t failed to move the government to stop the AFSPA atrocities on hapless people­.

Anna, Medha, Ramdev

During the past couple of months there have been four protest fasts led by three notable persons – Anna Hazare, Medha Patkar, Baba Ramdev and the repeat by Anna Hazare to condem the government’s high-handed demolition of the Ramdev show at Ramlila maidan in Delhi. Of these, Medha Patkar’s fast has been the least known despite being in media-obsessed Mumbai. Medha Patkar, a veteran social activist who has been the face of non-violen­t peoples’ struggles for over two decades, would certainly stand taller than Anna Hazare, despite the media’s euphoric projection of him as our second Mahatma and certainly an upstart Baba Ramdev, whose antecedents are getting murkier with every passing day.

Hazare’s first fast of 97 hours and the second one on 7 June from 10 am to 6 pm at Rajghat was painted by the media as a national movement. Ramdev had an even more im­pre­ssive start: the United Progressive Alliance’s senior ministers, Pranab Muker­je­e and Kapil Sibal, having gone to the airport to receive him and almost yielding to his demands on the eve of the com­mencemen­t of the fast. However, the moment the Congress sensed the saffron game plan behind Ramdev, it deci­ded?to demolish the drama in a most shameful manner.

Medha Patkar’s fast was in the process of a continuing movement against the eviction of slum dwellers in the name of ­redevelop­ment. Mammoth slums are being demolished without the slum dwellers’ consent under the controversial Clause 3K of the Maharashtra Slum Areas Act. Taking up an issue on which the residents of the ­Golibar slum have been agitating against Shivalik Ventures, she began her fast demanding immediate cancellation of the Golibar project and all other projects sanctioned under Clause 3K, along with the clause itself. This is a concrete issue that directly affects more than half the population of Mumbai which lives in slums and is, arguably, a major source of corruption. As against this, Anna’s band has abstracted the entire issue of corruption reducing it to be the absence of a constitutional institution of a Lokpal. It has effectively diver­ted public outrage over successive corruption cases to the parleys for drafting a Lokpal Bill. Ramdev’s fast has been a populist show, full of rhetorical noise, and echoing ­saffron hyperbole, but careful in not dissecting the policy framework, that is shared by the entire political class and gives rise to black money.

Magic of the Media

It is interesting to see how the media differentiated between Hazare, Ramdev and Patkar. While the media went gaga over the fast of Anna Hazare and Baba Ramdev, it had almost ignored Medha Patkar, although the issue she raised related to the life and death of slum dwellers in Mumbai, in ­contrast to the abstract notion of black money that the former blew up. All of them were Gandhian in their approach but they differed in their appeal. Patkar’s fast being in support of poor slum dwellers was against the development vision of the growing middle class, which constitutes the target readership or viewership of the media and hence has had to be ignored. On the other hand, the campaign against corruption and black money has basically risen from these same classes who are eager to see India as a superpower but see this as being thwarted by the politicians. The abhorrence of the latter is really a reflection of their loathing for the majority of people of the lower classes, who are seen to shape politics. Naturally, the media was all out to promote it to maximise their gains.

The media is ultimately a business which cannot ignore its business interests. But the time frames within which various businesses envision their missions are now much shorter. The globalisation paradigm has compressed not only geographical space but also time and hence every business appears nakedly driven by short-term profit. The media was always manned by the middle class, but they had to transcend their class boundaries to be credible in their long-term business interests. Today, they are conditioned by their own class vision, as their customers, having large disposal incomes, are also of their own class. In the process, the media actually recreates the middle class world for you, which has little relation with reality. With advanced technologies, the media has become so powerful that it makes and unmakes the world for you, thereby shaping and conditioning politics too. That is why peoples’ movements are marginalised; Maoists and Muslims are painted black; dalits are stereotyped. The implication of this change in the media for peoples’ politics has been ominous. For instance, the civil rights movement, which is predicated on the media projecting instances of civil rights violations to the world and thereby creating pressure on the state, finds itself in a vulnerable situation with increasing ignorance from mainstream media.

Might of the State

The above episodes of a Gandhian fast also differ in the State responses they received. Medha Patkar’s fast had just ­reiterated the continuing demand of the movement “ghar bachao aandolan” (“save our homes”), which has consistently been ignored by the government. When she went on fast along with some activists from the Golibar slum, there was no response from the State, despite the people having documentary proof that ­Shivalik Venture had forged signatures of people and indulged in many other frauds, the crime for which its functionaries should have been arrested. On the eighth day, when her health showed signs of deterioration, the government yielded and constituted committees to review its decisions. In Anna Hazare’s case, the government’s response was much faster and salvage­d the situation by constituting a drafting committee for the Lokpal Bill. In Baba Ramdev’s case the government was embarrassingly receptive to start with and had reached some secret understanding with him. It only did a fascist somersault when it sensed a uncongenial political angle to it and unleashed its police to tear gas people and forcibly drive them out of the Ramlila ground in the dead of night. This rightly invoked a condemnation from every corner.

Notwithstanding the character of these episodes, there cannot be any doubt that they were peoples’ peaceful protests well within the constitutional framework. The argument dismissing these protests as disruptive of the parliamentar­y system is spurious because it would amount to giving a blanket licence to the so-called parliamentarians to loot the country. The State should have ways and means to deal with all kinds of protests in a democratic manner. If it violates its boundaries and clamps down on peoples’ protest, it actually provokes people to try out their might in any way they like. People­, unless driven to desperation by the arrogant State, cannot challenge the might of the modern State. The fact that many peoples’ movements had to take up arms to express themselves should impel the State to introspect on its behaviour­. The manner in which the media deals with peoples’ protests and the way the State patterns its responses, as exposed by these episodes, surely puts a question mark on peoples’ democratic movements.


एनिवन कैन बी अ फेमिनिस्ट !

Posted by हारिल On Monday, March 7, 2011 0 comments



“फ्रांस की जो स्थिति 1949 में थी, पश्चिमी समाज उन दिनों जिस आर्थिक और सामाजिक परिवर्तन के दौर से गुज़र रहा था, वह शायद हमारा आज का भारतीय समाज है, उसका मध्यम वर्ग है, नगरों और महानगरों में बिखरी हुई स्त्रियाँ हैं, जो संक्रमन के दौर से गुज़र रहीं हैं”।(डॉ. प्रभा खेतान, स्त्री उपेक्षिता) आठ मार्च अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के रूप में मनाया जाता है। स्कूलों में जिस तरह से लेख लिखना सिखाया जाता है यदि उस भाषा में लिखूँ तो इस दिन महिलाओं के उत्थान, उनकी सामाजिक स्थिति में बेहतरी के लिए किये जाने वाले कार्यो की सराहना की जाती है। कुछ जगहों पर कुछ विशेष कार्यक्रम आयोजित किये जाते हैं। अखबारों में खास तौर से सफलता और चुनौतियों वाले लेख छापे जाते हैं। सामाजिक तौर पर स्थापित स्त्रियों पर रंगा-रंग फीचर भी इस दिन अखबारों के पन्नों पर विशेष रूप से पाये जाते हैं। इसकी शुरुआत हो चुकी है एक प्रतिष्ठित अँग्रेजी अखबार ने अपने रविवार के विशेष सप्लिमेंट को आठ मार्च यानी अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के नज़र किया है। इसमें अखबार ने लोगों की राय जाननी चाही है कि ‘स्त्रीवाद’ की अब कितनी ज़रूरत रह गई है। जैसा की इधर के कुछ वर्षों में हुआ है और बहुत तेजी से हुआ है, अखबारों में इंट्लेक्चुयल की जगह इमिनेंट ने ले ली है यहाँ भी अखबार ने ‘इमिनेंट पर्स्नालिटीज़ की राय पाठकों के बीच रखी है। अखबार में निष्कर्ष के रूप में लिखे गए कुछ जुमले इस तरह के हैं- “Anyone can be a Feminist”, “Every educated women is a feminist”, “I don’t call myself a feminist”

सवाल यह है कि क्या वास्तव में “Anyone can be a Feminist”? क्या सच में “Every educated women is a feminist”? या फिर यह स्त्रीवादकी मूल भावना के साथ एक खतरनाक छेड़-छाड़ है? क्या हर पढ़ा-लिखा आदमी बुद्धिजीवी की श्रेणी में आता है? ऐडवर्ड सईद ने अपने एक लेख में इस प्रश्न का उत्तर देते हुए लिखा है कि बुद्धिजीवी होने का मतलब व्यक्ति से उतना नहीं जितना की मनोवृति, जीवन की दशा, प्रश्न के स्वरूप, ऊर्जा के रूप से है। यूरोपीय विचारक जूलियन बेंडा का मानना है कि वास्तव में बुद्धिजीवी वह होता है जो यथास्थिति को चुनौती देता है और इस तरह के सवाल उठता है जिसतरह के पहले कभी नहीं उठाए गए। एक ‘स्त्रीवादी’ भी आम तौर से सवाल करता है किन्तु उसके सवाल सिर्फ छोटे मोटे अधिकारों के लिए नहीं बल्कि स्त्री मुक्ति के लिए होते हैं। ‘स्त्रीवाद वर्चस्व के खिलाफ एक विचारधारा है, जो कहीं न कहीं स्वयं व्यक्ति के अंदर चाहे वह पुरुष हो या स्त्री स्वतः रहती है। स्त्री या पुरुष तभी स्त्रीवादी’ हो सकती/सकता है जब वह इस समाज में पितृ सत्तात्मक वर्चस्व के खिलाफ संवेदना रखेगा, उस पर सवाल करेगा। नहीं तो तब तक वह चाहे जितना पढ़ा लिखा और इस समाज के द्वारा दिये गए अधिकारों के प्रति सचेत और जागरूक हो, वह एक ‘स्त्रीवादी’ नहीं हो सकता। स्त्रीवाद’ पुरुषवादी वर्चस्व को सिर के बल खड़ा करने कि बात करता है और लैंगिक आधार पर किसी भी तरह के विभेद को नकारता है। अखबार के अंतर्वस्तु को देखकर मेरे मन में कई सवाल तो हैं। लेकिन उससे भी ज़्यादा बड़ा सवाल यह है कि क्या हम आज के समय में ऐसे विषयों पर जो वर्चस्व का विरोध करती हो और जिनसे मूलभूत परिवर्तन की संभावना हो पर अखबारों या अन्य पापुलर जनमाध्यमों में गंभीर विमर्श की अपेक्षा रख सकते हैं? अखबरों और जनमाध्यमों में अंतर्वस्तु चयन की प्रक्रिया में यह खास ध्यान रखा जाता है कि उसके पाठक श्रोता वर्ग की संवेदनाओं को ठेंस न पहुंचे। माध्यम हमेशा ही प्रचलित जन मान्यताओं को भुनाने की फिराक में रहते हैं। आज अखबारों और जनमाध्यमों में पूंजी का दबाव पहले से कहीं ज़्यादा बढ़ा है। पूंजी का यह दबाव हमेशा यह कोशिश करता है कि समाज में यथास्थिति बनी रहे। समाज में सोच और विचार के स्तर पर किसी भी तरह का परिवर्तन पूंजी के निर्बाध प्रवाह में रुकावट पैदा करता है। इसलिए हम पाते हैं कि इनदिनों जनांदोलनों का बेतरह सरलीकरण कर लोगों के सामने उसे पेश किया जा रहा है। गैर सरकारी संगठन और जनमाध्यम मिलकर लोगों में पैदा होने वाली बदलाव की इच्छा को, अस्थाई समाधानों और अति सरल व्याख्या कर, कुंद कर रहे हैं।

तात्कालिक संदर्भों में हमें पितृसत्ता के नए-नए अवतारों और मुखौटों को पहचानने की ज़रूरत है। आज ‘स्त्रीवाद को जहां यह साबित करना है कि वह इस भूमंडलीकृत दौर में उस तथाकथित आधुनिकता का औज़ार नहीं है जहां स्त्रीमुक्ति का अर्थ फ्री सेक्स है। साथ ही उसे अलग अलग जगहों पर तालिबानियों, खाप पंचायतों और बहुतेरे जड़तावादी संस्थानों से लोहा लेना है। वहीं उसे आधुनिकता की परिभाषा भी गढ़नी है जहां स्त्री समानता का अर्थ बहुआयामी है। जैसा कि विख्यात स्त्रीवादी चारु गुप्ता कहती भी हैं “स्त्रीवाद को बेहद गतिशील होना पड़ेगा और जनता के अन्य आंदोलनों के साथ संबंधों के बीच अपनी सार्थकता ढूंढनी होगी। स्त्री आंदोलन की यह ताकत रही है कि वह दोस्त-दुश्मन और जुड़ाव-अलगाव को पहचानने में कामयाब रहा है”। हमें भी यही उम्मीद करनी चाहिए कि आंदोलन अपने नए दुश्मनों की पहचान ठीक से करे और इसे अछे दोस्त मिलें।


गोधरा पर फैसला

Posted by हारिल On Friday, March 4, 2011 0 comments


1 मार्च को विशेष अदालत ने गोधरा कांड में दोषी करार दिये गए 31 आरोपियों को सज़ा सुना दी। 31 में से 11 को फांसी और 20 को उम्र कैद की सज़ा सुनाई गई है। यह खबर पूरे देश को अखबारों और खबरिया चैनलों के माध्यम से पता चल चुकी है। फैसला एक विशेष अदालत ने दिया है इस लिए इस पर कोई ज़्यादा टिप्पणी नहीं कर सकता। लेकिन फिर भी 9 साल पुराने इस मामले के कुछ बिन्दुओं पर ध्यान देना ज़रूरी है वह भी तब जब ज़्यादातर अखबारों में यह खबर की भाषा कुछ ऐसी हो “वर्ष 2002 में 27 फरवरी को पंचमहाल ज़िले के गोधरा रेलवे स्टेशन के समीप 59 कार सेवकों को ज़िंदा जला दिया गया था।....फिर राज्य में सांप्रदायिक दंगे भड़क गए थे जिनमें 1200 लोग मारे गए”। यह नागपुर से प्रकाशित एक बहु प्रसारित हिन्दी दैनिक की भाषा है। क्या इस भाषा से ऐसा प्रतीत नहीं होता है कि गुजरात में सांप्रदायिक दंगे भड़काने वाले भी यही लोग थे जिनको विशेष अदालत ने 1 मार्च को सज़ा सुनाई। दरअसल यहाँ बहुत सरकारी तौर से लगातार यह प्रयास किया जा रहा है कि 2002 में गुजरात में जो दंगे हुए उसे 27 फरवरी को 59 कार सेवकों को ज़िंदा जला देने के बाद भड़की जनता के गुस्से के रूप में प्रस्तुत किया जाय। जैसा की पहली मार्च को फैसला आने के बाद भारतीय जनता पार्टी के प्रवक्ता प्रकाश जावड़ेकर ने कहा है कि अदालत का फ़ैसला ये दिखाता है कि जो हम कह रहे थे, वो सही था। भाजपा कहती रही है कि साबरमती एक्सप्रेस में आग एक पूर्व नियोजित साज़िश के तहत लगाई गई थी। इस बात से शायद ही किसी को इंकार हो की 27 फरवरी को गोधरा में जो हुआ वह पूर्व नियोजित घटना थी और जो कोई भी भारत की सांप्रदायिक एकता पर यकीन रखता है वह घटना को अंजाम देने वालों का पक्षधर कभी नहीं हो सकता, लेकिन सवाल यह है कि क्या बिना किसी राजनीतिक समर्थन के एक हज़ार (अभियोजन पक्ष के अनुसार साबरमती एक्स्प्रेस के एस-6 डब्बे पर लगभग 1,000 लोगों की भीड़ ने हमला किया था। ) लोगों को किसी साजिश में शामिल किया जा सकता है? अगर नहीं तो वह राजनीतिक उदेश्य क्या था? या फिर 27 फरवरी को गोधरा में एकाएक एक हज़ार लोगों के माथे पर खून सवार हुआ और उन्होने साबरमती एक्सप्रेस के शयनयान छ: में आग लगा दी, चुकी घटना को पूर्व नियोजित थी तो दूसरी संभावना स्वतः खारिच हो जाती है। क्या जावड़ेकर साहब यह बता सकते हैं की गुजरात में सांप्रदायिक दंगों से सबसे ज़्यादा राजनीतिक फायदा किसे हो सकता था और हुआ ? इस मामले की जांच के लिए सुप्रीम कोर्ट ने भी एक कमिटी गठित की थी जिसने अपनी रिपोर्ट में कहा कि- कुल 32 मामलों में आरोपों की जांच की। इसमें हमने पाया कि कई मामलों में राज्य सरकार और राज्य सरकार से जुड़े लोगों, मुख्यमंत्री ने ऐसे काम किए जो ग़लत दिख सकते हैं लेकिन इन मामलों को साबित करने के लिए पर्याप्त चीज़ें नहीं है, जिससे क़ानून के तहत उनके ख़िलाफ़ कार्रवाई की जा सके''

रिपोर्ट के अनुसार जब राज्य में सांप्रदायिक हिंसा का माहौल था तब मोदी ने न तो गोधरा के बाद हुए दंगों की कड़ी आलोचना की और न मुस्लिम समुदाय के बेकसूर लोगों के मारे जाने को किसी न किसी तरह उचित ठहराया"। रिपोर्ट में यह बात बहुत साफ की गयी थी कि राज्य के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने किसी कट्टर हिंदू की तरह काम किया और पक्षपात भी किया। हमें यह समझना होगा की इस पूरे मामले में कई बार राज्य सरकार भी कटघरे में लायी है और स्वयं राज्य के मुख्यमंत्री को भी संदेह के घेरे में गया है। देश में बुद्धिजीवियों की एक बड़ी संख्या है जो यह मानती है कि 1992 के बाद से ही देश में जो भी सांप्रदायिक हिंसा हुई है उसमें महज़ एक पगलाई हुई भीड़ का नहीं बल्कि धार्मिक भावनाओं की गर्म आंच पर अपनी राजनीतिक रोटी सेकने वाली पार्टियों का भी हाथ रहा है। ऐसे में सवाल यह भी उठना लाज़मी है कि ऐसे ही फैसले अयोध्या में बाबरी मस्जिद गिराए जाने के बाद भड़की हिंसा और कंधमाल में हुए नरसंहार की घटनाओं पर क्यों नहीं आ रहे? उदारीकरण के बाद से धर्म और जाति रजीनीति के बाज़ार में एक सेलेबल गुड्स के रूप में उभरी है और गुजरात में इसने सबसे ज़्यादा फायदा दिया है। हमें यह समझना होगा की हमारी न्याय प्रणाली की कुछ सीमाएं हैं एवं हमें उसका सम्मान भी करना होगा लेकिन साथ ही हमें यह भी समझना होगा गोधरा और गुजरात अलग नहीं है। गोधरा में 59 लोग मारे गए और गुजरात में 12 सौ से ज़्यादा लोग यह इस इस पूरे प्रकरण को देखने का ठीक तरीका नहीं है। और न ही हमें सिर्फ उन लोगों को दोषी मानना चाहिए जिनके खिलाफ भौतिक सबूत मिले हैं। हमें मामले को समग्रता में देखना होगा और हताहतों को यह विश्वास दिलाना होगा कि न्याय सबके लिए समान है। दोषी सिर्फ वह लोग ही नहीं हैं जिन लोगों ने हथियार उठाए दोषी वह भी हैं जो इस पूरे समय में राजनीतिक लाभ उठाते रहे।

गुंजेश