बुधवार, 09/01/2013

Posted by हारिल On Tuesday, January 8, 2013 0 comments

कभी कभी लगता है तारीखों का कोई महत्व नहीं होता, अगर उसे दर्ज़ न किया जाय। सोचता हूँ हर तारीख को दर्ज़ करूँ, डायरी लिखूँ । क्या मैं शुरुआत कर चुका हूँ शायद! एक सामान्य से बुधवार को खास बनाने का प्रयास। डायरी लिखने पर लिखने के बारे में सोचते हुए मन में बार बार पुराने परिचित का ध्यान आ रहा है उस ने अभी अभी आर चेतन क्रांति की ताज़ा कविता पर सवाल उठाते हुए कहा की क्या यह साहित्य है, बड़ी कोफ्त होती है  वह लड़का कॉलेज के दिनों में कविता करना चाहता था आज कल क्या कर रहा है पता नहीं ... क्या लेखन जैसी प्रतिरोधी क्रिया को किसी खास संस्थानिक साँचे में फिट किया जा सकता है, मंटो ज़िंदगी भर इसी की मार झेलते रहे।  'क्या यह साहित्य है' के सवाल ने ही उन्हें जीते जी उस सार्वजनिक सम्मान से वंचित रखा जिसके वो हकदार थे...
और यह साहित्य से ज़्यादा व्यक्तिगत स्वतंत्रता का मामला है हर जगह 'तरीके' का सवाल रूढ़िवादियों (कानूनचियों) के लिए बड़ा हथियार है। हम कितने सीमित अर्थों में आज़ाद हुए हैं।
आज के दिन में मैं आर चेतन क्रांति की कविता को भी दर्ज़ करना चाहूँगा, चेतन जी की कवितायें हमारे समय की कवितायें हैं, आप बैंक में हों तो उनकी कविता, आप दफ्तर में हों तो उनकी कविता, सड़क पर हों तो उनकी कविता, हरे हुये हों या जीते हुए हों उनकी कविता साहस देती है
यह उनकी ताज़ी कविता जो उन्होने फेसबुक पर साझा की है


इसी बीच एक ताऊ आये। समस्या के निष्कर्ष पर पहुचने की जल्दी में बोले- दिल्ली, यहाँ का नंगा कल्चर, औरतें और उनकी लक्ष्मण रेखाएं- टाइप, कुछ-कुछ। फिर ऐसे ऐसे कई निकले -- टीवी से, अख़बारों से। मेट्रो और बसों में बिलबिलाते पाए गए। फुंफकारते। उन्हीं को समर्पित .....

कविता: आर चेतनक्रांति : अब मन की मेहनत कर ताऊ !

मैंने यह कब कहा ताऊकि तेरे पिछवाड़े में गूदा कम हैऔर 'सांथल पर घसराऊ'* में तेरे घी-पीये साँड
कमजोर हो गए हैं

मैंने तो बस यह कहा
कि 'यो छोरी' अलग सै

वह डर नहीं रही
बस बचकर निकल रही है
उसे तेरी आँखों से घिन है
कुछ ऐसा है उसके पास
जिसे तेरे हाथ से नहीं,
तेरी आँख से बचाना पहले जरूरी है।
बहुत सूक्ष्म, पर तेरे बाहुबल पर भारी

तू या तेरा कसरती दुधमुँहा
सरियों से उसे छलनी कर दे
तब भी वह रहेगी।

यह वलय
जो उसके नितम्बों से उठकर
हवा में लहर रहे हैं
यह आग!
हाँ ये वही है!
जिसको तूने सदियों ढाँपकर रखा
तापा
अपनी हथेलियों का निर्दय मांस
और आँच दी अपने कुनबे को

वह आँच, उसने अब अपनी कर ली है

संचित मादकता का
यह निर्बन्ध कम्पन
तुझे आमंत्रण नहीं है ताया,
हाथ पीछे! हाथ पीछे, राक्षस!

अपने चीतों को बरज
बता उन्हें
कि जितनी पास दिखती है दिल्ली
उतनी है नहीं
सीली-सकुचार्इ अपनी कचर-फचर बस्तियों में
यह माँ
अपनी जिन बेटियों को पोस रही है
वे तेरे सियार के जाँगर के बहुत-बहुत आगे जा चुकी हैं

वे सिर्फ मोबाइल फोन नहीं हैं
जो उनकी उँगलियों में हरदम बिंधा रहता है
न सिर्फ पगलार्इ खिलखिलाहट
जो बौराए बगुलों के झुंड की तरह
तेरे सिर के ऊपर से गुजर जाती है
न सिर्फ आसमानी जींस
जिसमें सुरक्षित उनकी 'जाँघें
तूझे अपने युकलिप्टसों में दिखती हैं
रातभर जिनकी कौंध
तुझे सोने नहीं देतीं

ताऊ
वे इस सबसे बाहर हैं
अपने माथे में
जिससे तेरी निगाह फिसल-फिसल जाती है
और काले चमकीले बालों के ध्वज में
जो अब लहराया जा चुका है
और जिससे गिरे फूल
समूची सभ्यता चुन रही है

ताऊ,
बेशक
वह भी चाहिए इन्हें
जिसे मुटठी में कसकर तू कहता है-मेरा नेजा
-हाय, मेरा सीधा खड़ा, बलवान नेजा

पर जो उन्हें आखिरकार चाहिए
वह बहुत सूक्ष्म है
नामालूम-सा
कि तेरी हथेली पर धरा रहे, और तुझे पता भी न हो
तू क्या देगा उसे अहमक!

अपने जिस्म के
शतमुखी संगीत में डूबीं
नंगी लड़कियों की यह फौज
अपनी आत्मा की चादर में
रोज़
एक महीन तार डालती है
तैंतीस करोड़ देवताओं की आँखों में मूतकर
जिसे तूने इतने जतन से-
न पहनने लायक छोड़ा!
न ओढ़ने लायक

दो अंगुल की कुरती
और छह अंगुल की पजामी पहनकर
ये उन खेतों को गोड़ने जाती हैं
जिन्हें तुम्हारे लौंडे सिर्फ लूटने जाते हैं
अपने कलछौंहे दिल से निकाल दे
कि ये किसी का बिस्तर गर्म करके आती हैं
बेवकूफ,
ये अपना आपा कमा रही हैं
जिसे इनके पुरखों ने
इनकी रूह से नोच फेंका था
तुम जिनमें आखिरी हो

ताऊ,
अब मन की मेहनत कर
यकीन कर
कुछ चीजें सच में होती हैं
जैसे र्इश्वर, जैसे सच्चार्इ,
जैसे 'इशक'
जिसे ऊपर पेड़ पर टाँगा तूने
और नीचे से ट्रैक्टर खींच लिया
जिसे रौंद डाला तूने
धोती चढ़ाकर
जैसे हव्वा गारा सानती थी घर के लिए

तूने काट दिया गला जिनका
दराँती से
वे भी आखिरी थीं

दिल्ली में उनकी अगली किश्त नहीं है
यह बीज अलग है
यह पौद अलग है
यह फसल अलग है

अपने हल, अपने खुरपे, अपने फावड़े, अपनी लाइसेंसी बन्दूकें,
बाँहों की मछलियाँ, जाँघों का जाँगर, मूँछें,
अपने बेसिर के लोथ शिश्न-योद्धा लड़कों को लेकर
तू जा यहाँ से
निकल, समेट अपना पसारा

आना, जब तेरे मुरैठे के बल कम हो जाएँ
जब तेरे सर में पड़ा मांस का पिंड
हरकत करने लगे
जब तुझे खुद लगने लगे
कि पहलवानी अब बस एक खेल है
जिसे देखकर बच्चे ताली बजाते हैं

इन बच्चियों को बख़्श
हमें इनसे बहुत उम्मीदें हैं।

'सांथल पर घसराऊ-'सांथल का अर्थ 'जाँघ, 'पर' मतलब 'पुर', 'घसराऊ-घिसरने वाला। इस तरह के पद अकसर पशिचमी उत्तर प्रदेश और शायद हरियाणा में भी, गाँवों के नाम होते हैं। लेकिन यह पद इन क्षेत्रों में 'शिश्न' के लिए प्रयोग किया जाता है-यानि जो जाँघ पर घिसरता रहता है।



मृत्यु / अनामिका

Posted by हारिल On Sunday, January 6, 2013 0 comments

उसकी उमर ही क्या है !
मेरे ही सामने की 
उसकी पैदाइश है ! 
पीछे लगी रहती है मेरे 
कि टूअर-टापर वह 
मुहल्ले के रिश्ते से मेरी बहन है !

चौके में रहती हूँ तो 
सामने मार कर आलथी-पालथी
आटे की लोई से चिड़िया बनाती है !
आग की लपट जैसी उसकी जटाएँ 
मुझ से सुलझती नहीं लेकिन 
पेशानी पर उसकी
इधर-उधर बिखरी 
दीखती हैं कितनी सुंदर !

एक बूंद चम-चम पसीने की 
गुलियाती है धीरे-धीरे पर 
टपके- इसके पहले 
झट पोंछ लेती है उसको वह 
आस्तीन से अपने ढोल-ढकर कुरते के !
कम से कम पच्चीस बार 

इसी तरह 
हमको बचाने की कोशिश करती है। 
हमारे टपकने के पहले !
कभी कभी वह 
लगा देती है झाड़ू घरों में! 
जिनके कोई नहीं होता-
उन कातर वृद्धाओं की 
कर देती है जम कर खूब तेल-मालिश।
दिन-दिन भर उनसे बतियाती है जो सो ! 

जब किसी को ओठ गोल किए 
कुछ बोलते देखें गडमड-
समझ लें- वह खड़ी है वहीं
या ऊंघ रही है वहीं खटिया के नीचे-
छोटा-सा पिल्ला गोद में लिये !
बडे़ रोब से घूमती है वह 
इस पूरे कायनात में। 
लोग अनदेखा कर देते हैं उसको 
पर उससे क्या?
वह तो है लोगों की परछाईं ! 
और इस बात से किसको होगा भला इनकार 
आप लांघ सकते हैं सातों समुंदर 
बस अपनी परछाईं नहीं लांघ सकते ।