मिट्टी की किताब

Posted by हारिल On Monday, June 13, 2016 0 comments

  • गुंजेश 



मनुष्य और मिट्टी का संबंध कितना पुराना है यह सवाल ही बेमानी है। फिर भी जब मनुष्य ने पहली बार गीली मिट्टी को पका कर कुछ बनाया होगा तो वह मिट्टी से एक सर्जक के तौर परव् जुड़ा होगा। कितना अनूठा रहा होगा वह मिलन, मानव को सृजित करने वाली मिट्टी जब मानव के हाथों में आकार खुद एक नए रूप में सृजित हुई होगी। मिट्टी से कुछ बनाते हुए मनुष्य को माँ होने का एहसास हुआ होगा। साथ ही मनुष्य ने सीखा होगा चीजों को सहेजना। मिट्टी एक साथ मनुष्य की रचना’, माँ’, और सफलता की किताब तीनों हुई होगी।

इसलिए गोपाल नायडू जैसे शिल्पकारों के लिए, जो मिट्टी को तरह तरह के आकारों में ढ़ालते जीवन संघर्ष को दर्ज करते हैं, माँ’, मिट्टी और किताब एक ही विषय है। मिट्टी की किताब कई मायनों में अनूठी किताब है, इस किताब में कम से कम शब्द हैं और ज़्यादा से ज़्यादा कथ्य। दरअसल, मिट्टी की किताब गोपाल नायडू के द्वारा माँ’, मिट्टी और किताब के विषय पर रचे गये शिल्पों का संग्रह का संग्रह है। जिसमें नायडू के कुल जमा अठारह शिल्प शामिल हैं। यह संख्या ज़रूर कम हो लेकिन शिल्प अपने कथ्य में युगों की पीड़ा, संवेदना और दर्द को समेटे हुए है। स्कूल की राह’, पढ़ो किताब पढ़ो’, मेरी किताब मेरी किताब’, माँ मेरी किताब’, उफ़्फ़ किताब’, प्रेम और किताब’, जीवन बचे ताकि ज्ञान भी जैसे शीर्षकों वाले शिल्प जहां वर्तमान की पीड़ादायी शिक्षा व्यवस्था के वीभत्स रूप को दिखते हैं वहीं मानव को शिक्षित करने में माँ भूमिका को भी 'सिद्ध' करते हैं।
यह मिट्टी मानव है, मिट्टी से गढ़ा गया मानव जिसके लिए किताब ज्ञान का प्रतीक है। लेकिन एक कड़वा सच यही है कि स्कूल की राह चलते ही बच्चा (मानव/मिट्टी) पढ़ो किताब पढ़ो के शोर में घिर जाता है, फिर उसे न पढ़ने की सजा मिलने लगती है। गोपाल बहुत सूक्ष्मता से  मिट्टी के चाक पर घुमाये जाने और फिर पकाए जाने की प्रक्रिया को अपने शिल्पों में दर्ज करने के लिए जाने जाते हैं। सृजित करने का दबाब ही उनके सृजन का मुख्य विषय रहा है उनकी यह कुशलता मिट्टी की किताब में भी दिखती है। समाज में ज्ञान निर्माण की प्रक्रिया जितनी सरल होनी चाहिए उसे उतना ही कठिन और दुर्लभ बना दिया गया है। ज्ञान हासिल करने के तरीके और वह न कर पाने के एवज में दंड का भागी होना यह एक विडंवाना है जिसे गोपाल बेहतरीन तरीके से दर्ज करते हैं। दुनियावी ज्ञान से चिढ़ा हुआ बच्चा आखिर अपनी माँ के गोद में जाता है और वहीं से सबसे ज़्यादा सीखता है इसलिए उसकी माँ ही उसकी किताब हो जाती है खुद गोपाल किताब की भूमिका में लिखते हैं कि स्कूली शिक्षा के दुख ने जिस जमीन से अलग थलग किया था, उसी ने मुझे राजनीति और समाजकर्म कि चिंता में किताब से जोड़ दिया.... किताब का मतलब बच्चा हो जाना था। कहना न होगा कि मिट्टी का सृजन से अटूट संबंध है। आषाढ़ की पहली बौछार से भीगी हुई मिट्टी की अंकुरण के सौंदर्य को मूर्त करती है, लेकिन गोपाल के यहाँ मिट्टी का सौन्दर्य उसकी संपूर्णता में है उत्कट ज्ञान की लालसा, और उसकी विदारक अतृप्ति गोपाल के शिल्पों में बहुत खूबसूरती से दिखाई देती है। गोपाल बार बार अपने शिल्पों में जोड़ने के बजाय दूर रखने के स्थायी भाव पर आधारित इस कठोर शिक्षण प्रणाली को अपने शिल्पों में दर्ज करते हैं। ऐसा ही एक शिल्प है उफ़्फ़ किताब जो बच्चे की क्षमता के बाहर है इसी कारण अतिशय अगम्य लगने वाली वाली किताब की प्रतिमा को साक्षात खड़ा करती है। गोपाल के शिल्पों में दो आयाम मुख्य रूप से दिखते हैं एक वो जो इस शैक्षणिक प्रणाली के अंदर शैक्षणिक रूप से वंचित हैं और दूसरे वो जो शैक्षणिक रूप से संपन्न हैं। वंचितों के संसार में जीने वालों के लिए किताब ज्ञान का स्रोत नहीं रद्दी की टोकरी होती है।
मूल रूप से दक्षिण भारतीय और मध्यभारत (नागपुर) में पाले बढ़े गोपाल के पास विस्तृत दृष्टि भी है वह अपने बच्चे को पढ़ाने को लेकर माँ की बेचैनी खूब समझते हैं इसलिए उनके शिल्पों में बच्चे को स्तनपान कराती माँ यहाँ किताब पढ़ती हुई दिखाई देती है। गोपाल भूमिका में लिखते भी हैं कि माँ स्तनों से दूध के साथ ज्ञान भी पिलाती थी। गोपाल के इस संशिप्त शिल्पकर्म में समाज की बुनियादी समस्या दर्ज है। जिसे न केवल गोपाल के अन्दर का शिल्प्कर्मी आहत है बल्कि वह बहुत गहरे में हमारे समाज को जख्मी कर रहा है। गोपाल के शिल्प चेतावनी के साथ साथ उम्मीद है कि आखिर में बची रहेगी किताब और बची रहेगी मिट्टी कि कहानी. 


ऐसे हुआ हूल

Posted by हारिल On 0 comments


  • गुंजेश 

यदि मैं आपको अभी बता दूं कि आगे के पूरे लेख में आप एक किताब के बारे में पढ़ेंगे. एक ऐसी किताब जो 1857 की स्वतंत्रता संग्राम की पूर्व पीठिका का औपन्यासिक दस्तावेज होने का दावा करती है. स्वतंत्रता संग्राम की पूर्व पीठिका अर्थात ‘संताल हूल’. जिसमें पहली बार संतालों ने यह सवाल उठाया था कि यह जमीन ईश्वर की, हम ईश्वर के बेटे फिर बीच में यह सरकार कहां से आ गयी. ठीक है कि आप जानते हैं कि ‘यह आंदोलन 30 जून 1855 से सितंबर 1856 तक चला’ यह भी कि ‘इसका नेतृत्व सिद्धू एवं कान्हू ने किया था’ और यह भी कि ‘दो बहने फूलो और झानो हूल का निमंत्रण बांटा करती थी’. इन सब जानकारियों के बावजूद आप यह नहीं जानते होंगे कि भुंइयां राजा कौन थे और पश्चिम से आनेवाले शत्रुओं से रक्षा करनेवाले भुंइयां राजा और इनकी प्रजा ने धरती से ‘बिलकुल अलग थलग’ और ‘स्वतंत्र संताल ’ होने की मांग क्यों की थी. 
तो भी गुगल सर्च के जमाने में महज 150 वर्षो से कुछ ज्यादा पुरानी घटना, भले ही वह कितनी ही ऐतिहासिक क्यों न हो, के बारे में जानने के लिए आप क्यों लगभग 90 वर्ष पुराने उपन्यास को पढ़ें. वह भी एक ऐसा उपन्यास जिसे एक तत्कालीन अंगरेज शासक ने लिखा हो. यहां एक बात समझ लेने की जरूरत होगी कि अभी तक कुछ इतिहास कारों को छोड़ कर ज्यादातर इतिहास लेखन किसी न किसी राजनीतिक, धार्मिक दबाव में ही हुआ है और इस पर भी आदिवासियों या अन्य दमित समुदायों के बारे में लिखा गया लोकप्रिय (पॉपुलर) इतिहास तो ‘शिकारियों का शिकार पर लिखा गया इतिहास’ ही है. लोकप्रिय इतिहास के बारे में एक और बात यहां समझ लेने की जरूरत है कि यह हमें घटनाओं के घटने की जानकारी तो देती है लेकिन उन घटनाओं के घटने की प्रक्रिया क्या रही वो कौन से सामाजिक आर्थिक द्वंद्व रहे जो घटना के होने के जिम्मेदार रहे यह जानकारी हमें  उस समय के जिम्मेदार साहित्य से ही मिलती है. अंगरेज कवि शैले ने अपने लेख ‘कविता के पक्ष में’ (अ डिफेंस ऑफ द पोएट्री) में इस बारे में विस्तार से लिखा भी है.
बहरहाल, मैं जिस औपन्यासिक दस्तावेज की बात कर रहा हूं वह रॉबर्ट कार्सटेयर्स के द्वारा लिखित (हाड़माज विलेज)और शिशिर टुडू द्वारा अनुवादित ‘ऐसे हुआ हूल’ है. कार्सटेयर्स 1885 से 1898 तक तत्कालीन संताल परगना जिला के डिप्टी कमिश्नर रहे थे. वह करीब 13 वर्षो तक दुमका में पदस्थापित रहे उन्होंने अपनी यादों को ‘हाड़माज विलेज’ में दर्ज किया जो 1935 में किताब की शक्ल में आयी. यहां यह बताना भी रोचक होगा कि 1935 में  ‘हाड़माज विलेज’ सिर्फ सौ प्रतियां ही छपी जिसे प्रकाशन के कुछ ही समय के बाद तत्कालीन कंपनी सरकार द्वारा प्रतिबंधित कर दिया गया. किताब में न केवल पहाड़िया और संतालों के बीच के बुनियादी फर्क को दर्ज किया गया है बल्कि आदिवासी समाज की प्रकृति आधारित प्राकृत जीवन पद्धति को, उसके बुनियादी समाजशास्त्र को, सामाजिक सहभागिता के उनके सहज नियमों को बेहतरीन और काफी हद तक तटस्थ तरीके दर्ज किया गया है.  
शिशिर टुडू  के सरल और सार्थक अनुवाद में इस उपन्यास को पढ़ते हुए आप बरबस ही संताल (दुमका, गोड्डा और उसके आस पास) के इलाकों में पहुंच जायेंगे. इस किताब को पढ़ते हुए हम उस ऐतिहासिक चूक से भी वाकिफ होते हैं जो हमारे ज्यादातर लोकप्रिय इतिहासकारों या इतिहास से संबंधित चीजों को लिखनेवालों ने की है; आमतौर से हमारा इतिहास लेखन पुरातात्विक अवशेषों और बहुत हाल की बात करें तो ‘कार्बन 14’ जैसी भौतिक विज्ञान पर आधारित  पद्धतियों पर निर्भर करता है. लेकिन जब आदिवासी या सब्लार्टन इतिहास लेखन की बात आती है तो ये विधियां हमारा बहुत साथ नहीं दे पाती और हमारा लिखना सिर्फ हमारे अनुमानों पर आधारित हो जाता है. ऐसे में ‘ऐसे हुआ हूल’ उन तमाम इतिहास कार्यो पर भारी पड़नेवाला उपन्यास है. उपन्यास पढ़ते हुए हम उन द्वंद्वों को बखूबी समझ पाते हैं जिनकी वजह से शांति प्रिय संताल एक खूनी संघर्ष करने को मजबूर हुए. हूल की कहानी केवल एक जमीन या सत्ता के संघर्ष की कहानी नहीं है. यह एक समुदाय की उस चेतना के संघर्ष की कहानी है जिससे उसकी अस्मिता जुड़ी हुई है, और जिसके (चेतना) के अभाव में वह समुदाय खुद को जीवित भी मानने को तैयार नहीं होगा. हूल जीवित रहने के अधिकार की लड़ाई भर नहीं था बल्कि अपने शर्तो पर जीवित रहने के लिए संतालों ने अंगरेजों के खिलाफ हूल का आह्वान किया था.
जैसा कि उपन्यास की प्रस्तावना में वरिष्ठ पत्रकार हेमंत ने लिखा है कि ‘उपन्यास पढ़ते हुए ऐसा प्रतीत होगा कि आप संताल परगना के संताल गांवों को वर्ष के विभिन्न मौसमों और त्योहारों के अवसर पर अपनी आंखों से देख रहे हैं.’ कार्सटेयर्स के लिखने की सबसे खास बात यह रही कि उन्होंने इस उपन्यास में अंगरेजी दिक्  और काल (टाइम एंड स्पेस) का इस्तेमाल न करते हुए आदिवासी दिक् और काल को दिखाने का यथा संभव प्रयास किया है. हालांकि कार्सटेयर्स ने हूल के मुख्य नायकों सिद्धू और कान्हू और उनके परिवार वालों का जिक्र उतना करने से बचते दिखे हैं जितना आंदोलन के मुख्य नायक होने के नाते उन्हें करना चाहिए था.
हालांकि, इस बात के लिए कार्सटेयर्स  को रियायत दी जा सकती है. हमें यह समझना होगा कि इस दंडीमारी के बावजूद, कि सिद्धू कान्हू को प्राथमिकता देने के बजाय कार्सटेयर्स  ने अपने उपन्यास के बड़े हिस्से में ‘साम टुडू’ और ‘हाड़मा’ के चरित्र चित्रण किया और न केवल उन्हें सिद्धू कान्हू के बरक्स हूल का नेता बनाया बल्कि बाज दफे ‘साम टुडू’ और ‘हाड़मा’ को अंगरेजों के प्रति सहानूभुति रखनेवाला भी दिखाया, कार्सटेयर्स ने कहीं पर भी आदिवासियों को कम सभ्य या समझदारी वाला नहीं दिखाया, जबकि ज्यादातर अंगरेज और अब भी ‘अंगरेजीयत की शिकार’ (इलीट समाज) आदिवासियों को कम सभ्य और खुद को उनका उत्थान करनेवाला ही मानते हैं. हमें यह भी समझना होगा कि कार्सटेयर्स एक प्रशासनिक पदाधिकारी थे और पद पर रहते हुए उनकी कुछ व्यावहारिक सीमाएं भी थी. जिसके बाहर जाना कार्सटेयर्स के लिए संभव न रहा होगा. किताब में हूल की कहानी क्या है से ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि किस तरह से संताल समाज को चित्रित किया गया है. यकीन के साथ कहा जा सकता है कि न केवल सन 35 के आस पास जिन शहरी लोगों (जो आदिवासी समाजों के बारे में या तो बहुत कम या बहुत भयावह जानकारियां रखते होंगे) ने इस उपन्यास को पढ़ा होगा उनके सामने आदिवासियों की काफी अलग और वस्तुनिष्ठ छवी बनी होगी और आदिवासियों को लेकर उनकी समझदारी में  बुनियादी फर्क आया होगा और आज भी जब जगह जगह आदिवासियों को मुख्यधारा में शामिल करने के नाम पर बरबर सरकारी कार्रवाइयां हो रही है तब एक बार फिर जरूरत है कि सरकार कार्सटेयर्स के लिखे इस दस्तावेज से समङो की वास्तव में आदिवासी होना क्या है. विनोद कुमार शुक्ल की एक कविता है ‘जो प्रकृति के सबसे निकट है’:
जो प्रकृति के सबसे निकट है
 जंगल उनका है
आदिवासी जंगल के सबसे निकट है
 इसलिए जंगल उनका है
अब उनके बेदखल होने का समय है
यह वही समय है जब आकाश से पहले एक तारा बेदखल होगा
जब पेड़ से पक्षी बेदखल होगा
आकाश से चांदनी बेदखल होगी
जब जंगल से आदिवासी बेदखल होंगे. 

इस समय में शिशिर टुडू  का यह काम इसलिए महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि ‘ऐसे हुआ हूल’ हमें यह तुलना करने का मौका देता है कि 150 वर्ष पहले और की स्थितियों में क्या फर्क आया है. आदिवासी कितने सुरक्षित/ असुरक्षित हुए हैं. हूल की स्थितियों में कितना परिवर्तन हुआ है. हालांकि, हिंदी में इस उपन्यास को आने में काफी समय लगा इससे पहले यह अंगरेजी, संताली, बांग्ला और उर्दू में प्रकाशित हो चुकी है. 







    • गुंजेश 
    • (1)

      जो खिड़की दीवार में रहती थी, और जिस दीवार में रहती थी, वह और ही मिट्टी की बनी हुई थी, दीवार में जिस जगह मिट्टी नहीं थी वहाँ खिड़की रहती थी। खिड़की में मिट्टी नहीं हवा रहती थी। हवा हमेशा टिक कर, मिट्टी की तरह, नहीं रहती थी॥ एक गुजरती थी तो दूसरी आती थी। आगे वाली हवा पीछे वाली हवा को खिड़की का पता बताते जाते थी। जैसे हवा, हवा नहीं चीटी हो। जब कोई हवा खिड़की पर बैठ कर सुस्ताने लगती, तो कमरे (चारों दीवारों, जिनमें से किसी एक पर खिड़की रहा करती थी, के बीच वाली जगह ) में उमस भर जाती थी। उमस से परेशान कमरे का जीवन, कमरे से बाहर दलान में टहलने को निकल जाता था। 'बाहर' निकालने पर खिड़की उतनी बड़ी नज़र नहीं आती थी, जितना बड़ा खिड़की से 'बाहर' नज़र आता था। 'बाहर' और 'भीतर' की नज़र में फर्क था। यह नज़र ही 'बाहर' और 'भीतर' की खिड़की थी। 'भीतर' से देखना, भीत के अंदर से ही देना नहीं होता, खूब अंदर तक देखना भी होता है। खूब अंदर से देखने के लिए किसी खिड़की की ज़रूरत नहीं होती। किसी कमरे में खिड़की ना हो तो अंदर के अंधेरे को हम बाहर से भी देख सकते हैं। रात का रोशन अंधेरा खिड़की से या खिड़की के बाहर से एक जैसा दिखता है।
      बांकी इंशा जी फरमाते हैं
      रहा नहीं है मुहब्बत के काम का कोई
      नहीं, यहां नहीं इंशा के नाम का कोई  

      (2)

      खिड़की पर खड़े रहो तो नहीं लगता कि किसी का इंतज़ार कर रहे हैं। दरवाजे पर खड़ा होना, इंतज़ार का सा अर्थ देता है। खिड़की से चांदनी अंदर आ जाती है, वह दरवाजे से अंदर कभी नहीं आती। खड़की से आई हुई चांदनी, कमरे में आती है, तब भी बाहर के आसमान को थामे रहती है। दरवाज़े से जो अंदर आता है, वह बाहर की दुनिया से कट कर आता है। दरवाज़े से जो जाता है वह आने का इंतज़ार छोड़ जाता है। खिड़की पर दृश्य रखे रह जाते हैं। हर रोज़ ठीक समय पर धूप का एक टुकड़ा, एक मोटरसाइकिल की हार्न, स्कूल जाते हमउम्र भाई-बहन, बगल के मकान में सिलबट्टे पर मसाला पीसती दादी, सब्ज़ी खरीदने के बहाने दरवाज़े पर आधा-अंदर आधा बाहर खड़ी आपस में गपियाती भाभियाँ। जीवन खुद को बरास्ते खिड़की खुद को दोहराता है। दरवाज़ा अनिश्चित के लिए प्रस्थान बिन्दु है।

      (3)

      एक खिड़की दरवाज़े का प्रतिस्थापन कभी नहीं हो सकती। कई बार दरवाज़े खिड़कियों में ज़रूर बादल जाते हैं। तब दरवाज़े से बाहर की दुनिया हवा की तरह आती है, और कमरे को अस्तव्यस्त कर कहीं, किसी डायरी के पन्ने में छुप जाती है। बहुत समय बाद जब आप वह शहर, वह कमरा, वह दरवाज़ा, यहाँ तक की उस खिड़की को भी भूल चुके होते हैं, तब भी याददाश्त की वह डायरी आपके पास ही होती है। जिसके किसी पन्ने में छुपी है वह दुनिया। वही जिसमें सायरन, पुलिस, गिरफ्तारी, प्रताड़णा सब कानूनी शब्द हैं। और हमारे सपने एक प्रतिबंधित विचार।



      एक अनुवादक की ओर से विज्ञापन

      मेरी बहुत सी कविताएं हैं जो अभी देवनागरी नहीं आ पायी हैं। कहीं दिमागी गुहा अंधकार के ओरांग- उटांग में दर्ज़ हैं सब, भाषाओं में अनुदीत होने के लिए। उन कविताओं के अनुवाद के लिए मुझे बहुत सारी भाषाएं, सिखनी है। छत्तिसगढ़ी में विकास, गुजरती में भाईचारा, और राष्ट्रभाषा में लोकतन्त्र का अनुवाद कैसे किया जाय, यह सवाल मुझे परेशान करता है। मैं दुनिया की किसी भी भाषा से देशभक्ति के लिए कोई शब्द लेता हूँ तो वह ज़हर पिलाने जैसा अर्थ देता है। लगता है आज़ादी जैसे कोई शब्द नहीं, सत्ता के लिए एक पूरी की पूरी वर्णमाला है। मुझे अभी उस वर्णमाला को भी रटना है। समय की भाषा में दोस्ती के अलग-अलग अर्थ हैं। हर समय का दोस्त भाषा से गायब है। मैं दोस्ती का एक पक्का अनुवाद ढूंढना चाहता हूँ। नफ़रत, गुस्सा और पैसे के लिए हर भाषा में शब्दों की इफरात है। लेकिन मेरी कविता में ये शब्द कम ही हैं। इस तरह से और भी बहुत सारे शब्द हैं जिनका जिक्र मेरी कविताओं में नहीं है। मुझे सिर्फ कवितापयोगी शब्दों की ज़रूरत है। हालांकि, जीवन में मेरा पाला उन शब्दों से भी पड़ा है। लेकिन मैं उन्हें भाषा के रास्ते भविष्य से बेदखल करना चाहता हूँ। कुछ अनुवादों के लिए ठीक ठीक शब्द भी मुझे ढूंढने हैं। एक शब्द पैसे के लिए, जो इसके उच्चारण के साथ ही इसे पाने की ईक्षा प्रकट न करता हो। प्रेम के लिए जिसमें आक्रामकता अंतर्निहित न हो। हाँ मुझे अनुवाद के लिए ज़रूरत है एक प्यूरिफायड टूल की।


      पौधा और पानी


      उस शहर में, और शहर क्या था बस एक जगह थी जहां मुझे और तुम्हें मिलना था। हमने अपने पूर्वजों से बहुत सारी हिदायतें हासिल की थी। जितनी उनकी हिदायतें थीं, उससे ज़्यादा उनके क़िस्से थे उन दीदायतों को न मानने की, हम दुविधा में थे की किसे माने, और किसे खारिच कर दें। धर्म, वेद, उनिषद, कुरान, बाइबिल, गीता, यहां तक की संविधान भी हमारे लिए एक तरह की हिदायत थी। लैला-मजनू, शिरी-फरहाद, रोमियो-जूलियट, यहां तक की एडविन और नेहरू की प्रेम कहानियों पर क्रिटिकली सोचा जा चुका था। और हम किसी भी कहानी से कंविन्स नहीं हो पाते थे। हालांकि अब याद नहीं वह किसके बर्थड़े की थीम पार्टी थी। पार्टी की थीम थी जंगल। यह इत्तेफाक ही रहा होगा या हमारी पीढ़ी को दी गई मार्खेज़ की कोई दुआ। उस पार्टी में मैं पौधा बनकर आया था और तुम पानी। ओल्ड मोंक के खुमार ने मुझे अपने में डूबा लिया था। मैं मुरझाया कहीं पड़ा था। तुमपर भी सिग्नेचर अपना असर दिखने लगी थी। उस पार्टी में तुमने शेर पर, पहाड़ पर, झरने पर, ज़मीन पर हर जगह पानी उंढेला। फिर अंत में बारी आई आई मेरी। पेड़ की। जैसे ही तुमने पेड़ पर पानी डाला पेड़ हरा हो गया। और उस शहर में अपनी उम्र तक वह हरा रहा। कितनी ही बार ऐसा हुआ कि जेठ की दुपहरी में तुम देर से आई, कई बार जब तुम्हारे मम्मी-पापा तुम्हें कहीं ले कर चले जाते, मैं खड़ा रहता बिलकुल अपनी जगह पर, कई बार इंतज़ार में कई बार गुस्से में मुरझा भी जाता। लेकिन ऐसा क्या था कि लाख रूठे रहने और मुरझाने के बावजूद, तुमसे मिलते ही बिना कोई शिकवा बयान किये। मैं खुद को हरा होने से नहीं रोक पाता। तुमने कहा था न कि लैला-मजनू, शिरी-फरहाद, रोमियो-जूलियट, यहां तक की एडविन और नेहरू में भी क्रिटिक करने को बस यही है कि उनका रिश्ता पौधा और पानी नहीं हो सके। 




      • गुंजेश 
      • 1

        तुम जवाब मत दो
        मैं सवाल भी नहीं करूंगा
        मेरा और तुम्हारा रिश्ता
        बादल और धूप का हो
        लोग, एक की उपस्थिती में
        दूसरे को चाहें

        2

        अरसा हो गया
        तुमसे मिले हुए
        अब तो तुम्हें याद भी नहीं होगा कि
        आखरी दिन मैंने शेव किया था या नहीं
        आखरी दिन तुमने कौन से रंग का सूट पहना था
        अब कुछ ठीक से याद नहीं पड़ता
        वैसे भी, कितने तो रंग पहन लेती थी एक साथ
        इसलिए याद नहीं अब कोई भी एक
        तुम मेजेंटा कहो, पर्पल कहो
        मुझे तो सब आसमानी लगते हैं
        ...
        आसमानी रंग, आसमानी ख्वाब
        आसमानी साथ
        ......

        अद्भुत तरीके से
        तुम्हें
        हरा, नीला और लाल
        तीनों रंग पसंद थे
        ताज्जुब है कि तुम
        पसीने के गंध को भी रंगों में ही देखती थी
        पहले झगड़े के बाद तुमने मेरे पसीने के पीले
        गंध से ही मेरी उदासी पहचानी थी
        और दुलार के हरे दुप्पट्टे से
        पसीने का पीलापन पोछा था
        उस दिन पहली बार मैंने इंद्रधनुष को चूमा था
        छुआ था, जाना था.

        3

        तुम पड़ी हो
        मेरे यादों के बुक शेल्फ में
        उस किताब की तरह
        जो हर बार दूसरी को ढूँढने में सबसे पहले आती है हाथ
        रख दूँ तुम्हें कहीं भी किसी भी कोने में
        कुछ भी ढूंढते हुए, पहुंचता हूँ तुम्हीं तक ...


        4

        इस शहर में
        जहां अब हूँ
        तुम्हारे साथ से ज्यादा तुम्हारे बिना
        जिसके लिए कहा करता था
        'तुम हो तो शहर है, वरना क्या है'
        'नहीं, शहर है तो हम हैं
        हम, हम नहीं रहेंगे तो भी शहर रहेगा' तुम्हारी हिदायत होती थी.
        अपनी रखी हुई कोई चीज़ भूल जाने
        रसोई में एक छिपकली से डर कर चाय
        बिखेर देने के बावजूद
        तुमने बेहतर समझा था इस शहर को
        कैसे झूम कर बरसता था यह शहर, उन दिनों में
        जिनको अब कोई याद नहीं करता
        तुमने ही तो कहा था - 'जब बहुत उमड़-घुमड़ कर शोर मचाते हैं बादल
        और बरसते हैं  दो एक बूंद ही,
        तो लगता है जैसे, खूब ठहाकों के बाद
        दो बूंद पानी निकली हो किसी के आँखों
        से'..........


        5

        हमने कुछ नहीं किया था
        बस ढूंढा था
        तुम्हारी हंसी को, अपने चेहरे पर
        तुमने
        मेरे आंसुओं को अपनी आँखों में

        अब भी कुछ नहीं हुआ
        हमने
        पेंसिल और इरेज़र की तरह
        एक दूसरे की चीज़ें
        एक दूसरे को लौटा दी है .....

        6

        कमरा ठीक करना भी कविता लिखने जैसा है
        जब आप एक कविता लिख रहे हों तो दूसरी नहीं लिखी जाएगी
        कवि ठीक नहीं कर पाते हैं
        अपना कमरा
        कई-कई दिनों तक
        ज़रूरी नहीं कि लिख रहे हों कविता ही
        मन में अ-कविता की स्थिति हो
        तो भी कमरा ठीक कर पाना, बेहद मुश्किल है
        कि ऐसे में आप भूल जाएंगे/जाएंगी अपनी ही रखी कोई चीज़......
        कि किसी पंक्ति के बीच से गायब
        हो जाएगा कोई संयोजक
        और बेमेल हो जाएगी
        अगली लाइन पिछली से....
        कि कमरा ठीक करने के लिए उठते ही
        याद आएगा
        टिकट के लिए स्टेशन जाना
        स्टेशन जाते ही माँ के लिए चश्मा बनवाना, दवाइयाँ ले लेना
        अपनी छोटी सी भतीजी के लिए
        जिसे पीला रंग इतना पसंद है कि वह पिता के चेहरे से ही पहचान लेती है
        कि दिन सुनहरा पीला रहा या उदास पीला
        एक बहुरंगी पीला फ्राक....
        और इस तरह से रह जाएगी एक कविता
        और रह जाएगा एक कमरा
        ठीक होते-होते
         ......

        कि कविता लिखना प्रेम करने जैसा है
        कि जिसके लिए भूलनी पड़ती है सारी दुनिया
        कि जिसके लिए सारी दुनिया याद करती है आपको
        कि आपकी सारी दुनिया सिमट आती है आप दोनों के बीच
        आपके मन-मस्तिष्क से बाहर
        दो हथेलियों के बीच, उलझी हुई उँगलियों में
        जैसे गद्य और पद्य की किताबें रखीं हों शेल्फ में
        एक बाद एक, अपने रखे होने में बेतरतीब
        अनुशासित और अनुशासनहीन दोनों एक साथ
        भरे पूरे जीवन की तरह  
        कि प्रेम करना जीवन को ठीक करना है.......

        7

        उसने जैसा सोचा वैसा लिखा
        जैसा लिखा वैसा जीया
        जैसा जीया वैसा स्वीकार किया
        इसलिए वह लगातार अनुपयोगी होता हुआ
        पागलों में शुमार किया गया।
        ……

        बहुत ज़रूरी था
        कि, वह जैसा सोचे उसमें मिला दे थोड़ी सी
        वैसी सोच जो वह नहीं सोचता
        कि वह जैसा जिए उसमें मिला दे
        थोड़ा सा वैसा जीना जो वह नहीं जीता
        कि वह जो स्वीकारे उसमें मिला दे
        वह स्वीकृति भी जो उसकी नहीं है
        कुल मिला कर यह पैकेजिंग का मामला था
        उसे एक पैकेट होना था
        एक ऐसे उत्पाद का पैकेट जो कि वह नहीं था
        बाजार के विशेषज्ञों का मानना था इससे उपभोक्ता चौंकेगा
        'उपभोक्ता का चौंकना' उत्पाद से  ज़्यादा अहम था
        लेकिन, वह, वह था
        जिसने पहली बार प्रेम करने के बाद चौंकना बंद कर दिया था
        और अब भी उसे माँ और विचार
        दोनों की याद बुरी तरह परेशान कर देती थी
        था, था की बहुलता से आप इस बात की तस्सली न कर लें
        कि  वह आपके बीच नहीं रहा
        वह है, अगर आप बर्दाश्त कर सकें उसकी असहमतियों को
        तो आपके विचार के विरोध में एक विचार के रूप में
        आपकी नफरतों के विरोध में एक प्रेम के रूप में
        वह है, तमाम तालाबों में प्यास के रूप में
        छायायों में धुप के रूप में
        वह है बेटी की होटों में पुकार के रूप में ……

        8

        रोज़-ब-रोज़
        दर-ब-दर सार्वजनिकता के एकांत में
        बहुमत के उमस से लथपथ
        भाषा के बिना अभिव्यक्त होने की आस लिए
        कई शब्द हैं, दम तोड़ रहे हैं
        और इधर
        जो है
        और जो नहीं है, उस सबके बीच
        तुम्हारा होना एक पुल है
        जिससे होकर सारी त्रासदियों को होकर गुज़रना है