मिट्टी की किताब

Posted by हारिल On Monday, June 13, 2016 0 comments
  • गुंजेश 



मनुष्य और मिट्टी का संबंध कितना पुराना है यह सवाल ही बेमानी है। फिर भी जब मनुष्य ने पहली बार गीली मिट्टी को पका कर कुछ बनाया होगा तो वह मिट्टी से एक सर्जक के तौर परव् जुड़ा होगा। कितना अनूठा रहा होगा वह मिलन, मानव को सृजित करने वाली मिट्टी जब मानव के हाथों में आकार खुद एक नए रूप में सृजित हुई होगी। मिट्टी से कुछ बनाते हुए मनुष्य को माँ होने का एहसास हुआ होगा। साथ ही मनुष्य ने सीखा होगा चीजों को सहेजना। मिट्टी एक साथ मनुष्य की रचना’, माँ’, और सफलता की किताब तीनों हुई होगी।

इसलिए गोपाल नायडू जैसे शिल्पकारों के लिए, जो मिट्टी को तरह तरह के आकारों में ढ़ालते जीवन संघर्ष को दर्ज करते हैं, माँ’, मिट्टी और किताब एक ही विषय है। मिट्टी की किताब कई मायनों में अनूठी किताब है, इस किताब में कम से कम शब्द हैं और ज़्यादा से ज़्यादा कथ्य। दरअसल, मिट्टी की किताब गोपाल नायडू के द्वारा माँ’, मिट्टी और किताब के विषय पर रचे गये शिल्पों का संग्रह का संग्रह है। जिसमें नायडू के कुल जमा अठारह शिल्प शामिल हैं। यह संख्या ज़रूर कम हो लेकिन शिल्प अपने कथ्य में युगों की पीड़ा, संवेदना और दर्द को समेटे हुए है। स्कूल की राह’, पढ़ो किताब पढ़ो’, मेरी किताब मेरी किताब’, माँ मेरी किताब’, उफ़्फ़ किताब’, प्रेम और किताब’, जीवन बचे ताकि ज्ञान भी जैसे शीर्षकों वाले शिल्प जहां वर्तमान की पीड़ादायी शिक्षा व्यवस्था के वीभत्स रूप को दिखते हैं वहीं मानव को शिक्षित करने में माँ भूमिका को भी 'सिद्ध' करते हैं।
यह मिट्टी मानव है, मिट्टी से गढ़ा गया मानव जिसके लिए किताब ज्ञान का प्रतीक है। लेकिन एक कड़वा सच यही है कि स्कूल की राह चलते ही बच्चा (मानव/मिट्टी) पढ़ो किताब पढ़ो के शोर में घिर जाता है, फिर उसे न पढ़ने की सजा मिलने लगती है। गोपाल बहुत सूक्ष्मता से  मिट्टी के चाक पर घुमाये जाने और फिर पकाए जाने की प्रक्रिया को अपने शिल्पों में दर्ज करने के लिए जाने जाते हैं। सृजित करने का दबाब ही उनके सृजन का मुख्य विषय रहा है उनकी यह कुशलता मिट्टी की किताब में भी दिखती है। समाज में ज्ञान निर्माण की प्रक्रिया जितनी सरल होनी चाहिए उसे उतना ही कठिन और दुर्लभ बना दिया गया है। ज्ञान हासिल करने के तरीके और वह न कर पाने के एवज में दंड का भागी होना यह एक विडंवाना है जिसे गोपाल बेहतरीन तरीके से दर्ज करते हैं। दुनियावी ज्ञान से चिढ़ा हुआ बच्चा आखिर अपनी माँ के गोद में जाता है और वहीं से सबसे ज़्यादा सीखता है इसलिए उसकी माँ ही उसकी किताब हो जाती है खुद गोपाल किताब की भूमिका में लिखते हैं कि स्कूली शिक्षा के दुख ने जिस जमीन से अलग थलग किया था, उसी ने मुझे राजनीति और समाजकर्म कि चिंता में किताब से जोड़ दिया.... किताब का मतलब बच्चा हो जाना था। कहना न होगा कि मिट्टी का सृजन से अटूट संबंध है। आषाढ़ की पहली बौछार से भीगी हुई मिट्टी की अंकुरण के सौंदर्य को मूर्त करती है, लेकिन गोपाल के यहाँ मिट्टी का सौन्दर्य उसकी संपूर्णता में है उत्कट ज्ञान की लालसा, और उसकी विदारक अतृप्ति गोपाल के शिल्पों में बहुत खूबसूरती से दिखाई देती है। गोपाल बार बार अपने शिल्पों में जोड़ने के बजाय दूर रखने के स्थायी भाव पर आधारित इस कठोर शिक्षण प्रणाली को अपने शिल्पों में दर्ज करते हैं। ऐसा ही एक शिल्प है उफ़्फ़ किताब जो बच्चे की क्षमता के बाहर है इसी कारण अतिशय अगम्य लगने वाली वाली किताब की प्रतिमा को साक्षात खड़ा करती है। गोपाल के शिल्पों में दो आयाम मुख्य रूप से दिखते हैं एक वो जो इस शैक्षणिक प्रणाली के अंदर शैक्षणिक रूप से वंचित हैं और दूसरे वो जो शैक्षणिक रूप से संपन्न हैं। वंचितों के संसार में जीने वालों के लिए किताब ज्ञान का स्रोत नहीं रद्दी की टोकरी होती है।
मूल रूप से दक्षिण भारतीय और मध्यभारत (नागपुर) में पाले बढ़े गोपाल के पास विस्तृत दृष्टि भी है वह अपने बच्चे को पढ़ाने को लेकर माँ की बेचैनी खूब समझते हैं इसलिए उनके शिल्पों में बच्चे को स्तनपान कराती माँ यहाँ किताब पढ़ती हुई दिखाई देती है। गोपाल भूमिका में लिखते भी हैं कि माँ स्तनों से दूध के साथ ज्ञान भी पिलाती थी। गोपाल के इस संशिप्त शिल्पकर्म में समाज की बुनियादी समस्या दर्ज है। जिसे न केवल गोपाल के अन्दर का शिल्प्कर्मी आहत है बल्कि वह बहुत गहरे में हमारे समाज को जख्मी कर रहा है। गोपाल के शिल्प चेतावनी के साथ साथ उम्मीद है कि आखिर में बची रहेगी किताब और बची रहेगी मिट्टी कि कहानी. 

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