• गुंजेश 
    • (1)

      जो खिड़की दीवार में रहती थी, और जिस दीवार में रहती थी, वह और ही मिट्टी की बनी हुई थी, दीवार में जिस जगह मिट्टी नहीं थी वहाँ खिड़की रहती थी। खिड़की में मिट्टी नहीं हवा रहती थी। हवा हमेशा टिक कर, मिट्टी की तरह, नहीं रहती थी॥ एक गुजरती थी तो दूसरी आती थी। आगे वाली हवा पीछे वाली हवा को खिड़की का पता बताते जाते थी। जैसे हवा, हवा नहीं चीटी हो। जब कोई हवा खिड़की पर बैठ कर सुस्ताने लगती, तो कमरे (चारों दीवारों, जिनमें से किसी एक पर खिड़की रहा करती थी, के बीच वाली जगह ) में उमस भर जाती थी। उमस से परेशान कमरे का जीवन, कमरे से बाहर दलान में टहलने को निकल जाता था। 'बाहर' निकालने पर खिड़की उतनी बड़ी नज़र नहीं आती थी, जितना बड़ा खिड़की से 'बाहर' नज़र आता था। 'बाहर' और 'भीतर' की नज़र में फर्क था। यह नज़र ही 'बाहर' और 'भीतर' की खिड़की थी। 'भीतर' से देखना, भीत के अंदर से ही देना नहीं होता, खूब अंदर तक देखना भी होता है। खूब अंदर से देखने के लिए किसी खिड़की की ज़रूरत नहीं होती। किसी कमरे में खिड़की ना हो तो अंदर के अंधेरे को हम बाहर से भी देख सकते हैं। रात का रोशन अंधेरा खिड़की से या खिड़की के बाहर से एक जैसा दिखता है।
      बांकी इंशा जी फरमाते हैं
      रहा नहीं है मुहब्बत के काम का कोई
      नहीं, यहां नहीं इंशा के नाम का कोई  

      (2)

      खिड़की पर खड़े रहो तो नहीं लगता कि किसी का इंतज़ार कर रहे हैं। दरवाजे पर खड़ा होना, इंतज़ार का सा अर्थ देता है। खिड़की से चांदनी अंदर आ जाती है, वह दरवाजे से अंदर कभी नहीं आती। खड़की से आई हुई चांदनी, कमरे में आती है, तब भी बाहर के आसमान को थामे रहती है। दरवाज़े से जो अंदर आता है, वह बाहर की दुनिया से कट कर आता है। दरवाज़े से जो जाता है वह आने का इंतज़ार छोड़ जाता है। खिड़की पर दृश्य रखे रह जाते हैं। हर रोज़ ठीक समय पर धूप का एक टुकड़ा, एक मोटरसाइकिल की हार्न, स्कूल जाते हमउम्र भाई-बहन, बगल के मकान में सिलबट्टे पर मसाला पीसती दादी, सब्ज़ी खरीदने के बहाने दरवाज़े पर आधा-अंदर आधा बाहर खड़ी आपस में गपियाती भाभियाँ। जीवन खुद को बरास्ते खिड़की खुद को दोहराता है। दरवाज़ा अनिश्चित के लिए प्रस्थान बिन्दु है।

      (3)

      एक खिड़की दरवाज़े का प्रतिस्थापन कभी नहीं हो सकती। कई बार दरवाज़े खिड़कियों में ज़रूर बादल जाते हैं। तब दरवाज़े से बाहर की दुनिया हवा की तरह आती है, और कमरे को अस्तव्यस्त कर कहीं, किसी डायरी के पन्ने में छुप जाती है। बहुत समय बाद जब आप वह शहर, वह कमरा, वह दरवाज़ा, यहाँ तक की उस खिड़की को भी भूल चुके होते हैं, तब भी याददाश्त की वह डायरी आपके पास ही होती है। जिसके किसी पन्ने में छुपी है वह दुनिया। वही जिसमें सायरन, पुलिस, गिरफ्तारी, प्रताड़णा सब कानूनी शब्द हैं। और हमारे सपने एक प्रतिबंधित विचार।



      एक अनुवादक की ओर से विज्ञापन

      मेरी बहुत सी कविताएं हैं जो अभी देवनागरी नहीं आ पायी हैं। कहीं दिमागी गुहा अंधकार के ओरांग- उटांग में दर्ज़ हैं सब, भाषाओं में अनुदीत होने के लिए। उन कविताओं के अनुवाद के लिए मुझे बहुत सारी भाषाएं, सिखनी है। छत्तिसगढ़ी में विकास, गुजरती में भाईचारा, और राष्ट्रभाषा में लोकतन्त्र का अनुवाद कैसे किया जाय, यह सवाल मुझे परेशान करता है। मैं दुनिया की किसी भी भाषा से देशभक्ति के लिए कोई शब्द लेता हूँ तो वह ज़हर पिलाने जैसा अर्थ देता है। लगता है आज़ादी जैसे कोई शब्द नहीं, सत्ता के लिए एक पूरी की पूरी वर्णमाला है। मुझे अभी उस वर्णमाला को भी रटना है। समय की भाषा में दोस्ती के अलग-अलग अर्थ हैं। हर समय का दोस्त भाषा से गायब है। मैं दोस्ती का एक पक्का अनुवाद ढूंढना चाहता हूँ। नफ़रत, गुस्सा और पैसे के लिए हर भाषा में शब्दों की इफरात है। लेकिन मेरी कविता में ये शब्द कम ही हैं। इस तरह से और भी बहुत सारे शब्द हैं जिनका जिक्र मेरी कविताओं में नहीं है। मुझे सिर्फ कवितापयोगी शब्दों की ज़रूरत है। हालांकि, जीवन में मेरा पाला उन शब्दों से भी पड़ा है। लेकिन मैं उन्हें भाषा के रास्ते भविष्य से बेदखल करना चाहता हूँ। कुछ अनुवादों के लिए ठीक ठीक शब्द भी मुझे ढूंढने हैं। एक शब्द पैसे के लिए, जो इसके उच्चारण के साथ ही इसे पाने की ईक्षा प्रकट न करता हो। प्रेम के लिए जिसमें आक्रामकता अंतर्निहित न हो। हाँ मुझे अनुवाद के लिए ज़रूरत है एक प्यूरिफायड टूल की।


      पौधा और पानी


      उस शहर में, और शहर क्या था बस एक जगह थी जहां मुझे और तुम्हें मिलना था। हमने अपने पूर्वजों से बहुत सारी हिदायतें हासिल की थी। जितनी उनकी हिदायतें थीं, उससे ज़्यादा उनके क़िस्से थे उन दीदायतों को न मानने की, हम दुविधा में थे की किसे माने, और किसे खारिच कर दें। धर्म, वेद, उनिषद, कुरान, बाइबिल, गीता, यहां तक की संविधान भी हमारे लिए एक तरह की हिदायत थी। लैला-मजनू, शिरी-फरहाद, रोमियो-जूलियट, यहां तक की एडविन और नेहरू की प्रेम कहानियों पर क्रिटिकली सोचा जा चुका था। और हम किसी भी कहानी से कंविन्स नहीं हो पाते थे। हालांकि अब याद नहीं वह किसके बर्थड़े की थीम पार्टी थी। पार्टी की थीम थी जंगल। यह इत्तेफाक ही रहा होगा या हमारी पीढ़ी को दी गई मार्खेज़ की कोई दुआ। उस पार्टी में मैं पौधा बनकर आया था और तुम पानी। ओल्ड मोंक के खुमार ने मुझे अपने में डूबा लिया था। मैं मुरझाया कहीं पड़ा था। तुमपर भी सिग्नेचर अपना असर दिखने लगी थी। उस पार्टी में तुमने शेर पर, पहाड़ पर, झरने पर, ज़मीन पर हर जगह पानी उंढेला। फिर अंत में बारी आई आई मेरी। पेड़ की। जैसे ही तुमने पेड़ पर पानी डाला पेड़ हरा हो गया। और उस शहर में अपनी उम्र तक वह हरा रहा। कितनी ही बार ऐसा हुआ कि जेठ की दुपहरी में तुम देर से आई, कई बार जब तुम्हारे मम्मी-पापा तुम्हें कहीं ले कर चले जाते, मैं खड़ा रहता बिलकुल अपनी जगह पर, कई बार इंतज़ार में कई बार गुस्से में मुरझा भी जाता। लेकिन ऐसा क्या था कि लाख रूठे रहने और मुरझाने के बावजूद, तुमसे मिलते ही बिना कोई शिकवा बयान किये। मैं खुद को हरा होने से नहीं रोक पाता। तुमने कहा था न कि लैला-मजनू, शिरी-फरहाद, रोमियो-जूलियट, यहां तक की एडविन और नेहरू में भी क्रिटिक करने को बस यही है कि उनका रिश्ता पौधा और पानी नहीं हो सके। 

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