1 मार्च को विशेष अदालत ने गोधरा कांड में दोषी करार दिये गए 31 आरोपियों को सज़ा सुना दी। 31 में से 11 को फांसी और 20 को उम्र कैद की सज़ा सुनाई गई है। यह खबर पूरे देश को अखबारों और खबरिया चैनलों के माध्यम से पता चल चुकी है। फैसला एक विशेष अदालत ने दिया है इस लिए इस पर कोई ज़्यादा टिप्पणी नहीं कर सकता। लेकिन फिर भी 9 साल पुराने इस मामले के कुछ बिन्दुओं पर ध्यान देना ज़रूरी है वह भी तब जब ज़्यादातर अखबारों में यह खबर की भाषा कुछ ऐसी हो “वर्ष 2002 में 27 फरवरी को पंचमहाल ज़िले के गोधरा रेलवे स्टेशन के समीप 59 कार सेवकों को ज़िंदा जला दिया गया था।....फिर राज्य में सांप्रदायिक दंगे भड़क गए थे जिनमें 1200 लोग मारे गए”। यह नागपुर से प्रकाशित एक बहु प्रसारित हिन्दी दैनिक की भाषा है। क्या इस भाषा से ऐसा प्रतीत नहीं होता है कि गुजरात में सांप्रदायिक दंगे भड़काने वाले भी यही लोग थे जिनको विशेष अदालत ने 1 मार्च को सज़ा सुनाई। दरअसल यहाँ बहुत सरकारी तौर से लगातार यह प्रयास किया जा रहा है कि 2002 में गुजरात में जो दंगे हुए उसे 27 फरवरी को 59 कार सेवकों को ज़िंदा जला देने के बाद भड़की जनता के गुस्से के रूप में प्रस्तुत किया जाय। जैसा की पहली मार्च को फैसला आने के बाद भारतीय जनता पार्टी के प्रवक्ता प्रकाश जावड़ेकर ने कहा है कि अदालत का फ़ैसला ये दिखाता है कि जो हम कह रहे थे, वो सही था। भाजपा कहती रही है कि साबरमती एक्सप्रेस में आग एक पूर्व नियोजित साज़िश के तहत लगाई गई थी। इस बात से शायद ही किसी को इंकार हो की 27 फरवरी को गोधरा में जो हुआ वह पूर्व नियोजित घटना थी और जो कोई भी भारत की सांप्रदायिक एकता पर यकीन रखता है वह घटना को अंजाम देने वालों का पक्षधर कभी नहीं हो सकता, लेकिन सवाल यह है कि क्या बिना किसी राजनीतिक समर्थन के एक हज़ार (अभियोजन पक्ष के अनुसार साबरमती एक्स्प्रेस के एस-6 डब्बे पर लगभग 1,000 लोगों की भीड़ ने हमला किया था। ) लोगों को किसी साजिश में शामिल किया जा सकता है? अगर नहीं तो वह राजनीतिक उदेश्य क्या था? या फिर 27 फरवरी को गोधरा में एकाएक एक हज़ार लोगों के माथे पर खून सवार हुआ और उन्होने साबरमती एक्सप्रेस के शयनयान छ: में आग लगा दी, चुकी घटना को पूर्व नियोजित थी तो दूसरी संभावना स्वतः खारिच हो जाती है। क्या जावड़ेकर साहब यह बता सकते हैं की गुजरात में सांप्रदायिक दंगों से सबसे ज़्यादा राजनीतिक फायदा किसे हो सकता था और हुआ ? इस मामले की जांच के लिए सुप्रीम कोर्ट ने भी एक कमिटी गठित की थी जिसने अपनी रिपोर्ट में कहा कि- “कुल 32 मामलों में आरोपों की जांच की। इसमें हमने पाया कि कई मामलों में राज्य सरकार और राज्य सरकार से जुड़े लोगों, मुख्यमंत्री ने ऐसे काम किए जो ग़लत दिख सकते हैं लेकिन इन मामलों को साबित करने के लिए पर्याप्त चीज़ें नहीं है, जिससे क़ानून के तहत उनके ख़िलाफ़ कार्रवाई की जा सके''।
रिपोर्ट के अनुसार “जब राज्य में सांप्रदायिक हिंसा का माहौल था तब मोदी ने न तो गोधरा के बाद हुए दंगों की कड़ी आलोचना की और न मुस्लिम समुदाय के बेकसूर लोगों के मारे जाने को किसी न किसी तरह उचित ठहराया"। रिपोर्ट में यह बात बहुत साफ की गयी थी कि राज्य के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने किसी कट्टर हिंदू की तरह काम किया और पक्षपात भी किया। हमें यह समझना होगा की इस पूरे मामले में कई बार राज्य सरकार भी कटघरे में लायी है और स्वयं राज्य के मुख्यमंत्री को भी संदेह के घेरे में गया है। देश में बुद्धिजीवियों की एक बड़ी संख्या है जो यह मानती है कि 1992 के बाद से ही देश में जो भी सांप्रदायिक हिंसा हुई है उसमें महज़ एक पगलाई हुई भीड़ का नहीं बल्कि धार्मिक भावनाओं की गर्म आंच पर अपनी राजनीतिक रोटी सेकने वाली पार्टियों का भी हाथ रहा है। ऐसे में सवाल यह भी उठना लाज़मी है कि ऐसे ही फैसले अयोध्या में बाबरी मस्जिद गिराए जाने के बाद भड़की हिंसा और कंधमाल में हुए नरसंहार की घटनाओं पर क्यों नहीं आ रहे? उदारीकरण के बाद से धर्म और जाति रजीनीति के बाज़ार में एक सेलेबल गुड्स के रूप में उभरी है और गुजरात में इसने सबसे ज़्यादा फायदा दिया है। हमें यह समझना होगा की हमारी न्याय प्रणाली की कुछ सीमाएं हैं एवं हमें उसका सम्मान भी करना होगा लेकिन साथ ही हमें यह भी समझना होगा गोधरा और गुजरात अलग नहीं है। गोधरा में 59 लोग मारे गए और गुजरात में 12 सौ से ज़्यादा लोग यह इस इस पूरे प्रकरण को देखने का ठीक तरीका नहीं है। और न ही हमें सिर्फ उन लोगों को दोषी मानना चाहिए जिनके खिलाफ भौतिक सबूत मिले हैं। हमें मामले को समग्रता में देखना होगा और हताहतों को यह विश्वास दिलाना होगा कि न्याय सबके लिए समान है। दोषी सिर्फ वह लोग ही नहीं हैं जिन लोगों ने हथियार उठाए दोषी वह भी हैं जो इस पूरे समय में राजनीतिक लाभ उठाते रहे।
गुंजेश
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