“फ्रांस की जो स्थिति 1949 में थी, पश्चिमी समाज उन दिनों जिस आर्थिक और सामाजिक परिवर्तन के दौर से गुज़र रहा था, वह शायद हमारा आज का भारतीय समाज है, उसका मध्यम वर्ग है, नगरों और महानगरों में बिखरी हुई स्त्रियाँ हैं, जो संक्रमन के दौर से गुज़र रहीं हैं”।(डॉ. प्रभा खेतान, स्त्री उपेक्षिता) आठ मार्च अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के रूप में मनाया जाता है। स्कूलों में जिस तरह से लेख लिखना सिखाया जाता है यदि उस भाषा में लिखूँ तो इस दिन महिलाओं के उत्थान, उनकी सामाजिक स्थिति में बेहतरी के लिए किये जाने वाले कार्यो की सराहना की जाती है। कुछ जगहों पर कुछ विशेष कार्यक्रम आयोजित किये जाते हैं। अखबारों में खास तौर से सफलता और चुनौतियों वाले लेख छापे जाते हैं। सामाजिक तौर पर स्थापित स्त्रियों पर रंगा-रंग फीचर भी इस दिन अखबारों के पन्नों पर विशेष रूप से पाये जाते हैं। इसकी शुरुआत हो चुकी है एक प्रतिष्ठित अँग्रेजी अखबार ने अपने रविवार के विशेष सप्लिमेंट को आठ मार्च यानी अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के नज़र किया है। इसमें अखबार ने लोगों की राय जाननी चाही है कि ‘स्त्रीवाद’ की अब कितनी ज़रूरत रह गई है। जैसा की इधर के कुछ वर्षों में हुआ है और बहुत तेजी से हुआ है, अखबारों में ‘इंट्लेक्चुयल’ की जगह ‘इमिनेंट’ ने ले ली है यहाँ भी अखबार ने ‘इमिनेंट पर्स्नालिटीज़’ की राय पाठकों के बीच रखी है। अखबार में निष्कर्ष के रूप में लिखे गए कुछ जुमले इस तरह के हैं- “Anyone can be a Feminist”, “Every educated women is a feminist”, “I don’t call myself a feminist”।
सवाल यह है कि क्या वास्तव में “Anyone can be a Feminist”? क्या सच में “Every educated women is a feminist”? या फिर यह ‘स्त्रीवाद’ की मूल भावना के साथ एक खतरनाक छेड़-छाड़ है? क्या हर पढ़ा-लिखा आदमी बुद्धिजीवी की श्रेणी में आता है? ऐडवर्ड सईद ने अपने एक लेख में इस प्रश्न का उत्तर देते हुए लिखा है कि बुद्धिजीवी होने का मतलब व्यक्ति से उतना नहीं जितना की मनोवृति, जीवन की दशा, प्रश्न के स्वरूप, ऊर्जा के रूप से है। यूरोपीय विचारक जूलियन बेंडा का मानना है कि वास्तव में बुद्धिजीवी वह होता है जो यथास्थिति को चुनौती देता है और इस तरह के सवाल उठता है जिसतरह के पहले कभी नहीं उठाए गए। एक ‘स्त्रीवादी’ भी आम तौर से सवाल करता है किन्तु उसके सवाल सिर्फ छोटे मोटे अधिकारों के लिए नहीं बल्कि स्त्री मुक्ति के लिए होते हैं। ‘स्त्रीवाद’ वर्चस्व के खिलाफ एक विचारधारा है, जो कहीं न कहीं स्वयं व्यक्ति के अंदर चाहे वह पुरुष हो या स्त्री स्वतः रहती है। स्त्री या पुरुष तभी ‘स्त्रीवादी’ हो सकती/सकता है जब वह इस समाज में पितृ सत्तात्मक वर्चस्व के खिलाफ संवेदना रखेगा, उस पर सवाल करेगा। नहीं तो तब तक वह चाहे जितना पढ़ा लिखा और इस समाज के द्वारा दिये गए अधिकारों के प्रति सचेत और जागरूक हो, वह एक ‘स्त्रीवादी’ नहीं हो सकता। ‘स्त्रीवाद’ पुरुषवादी वर्चस्व को सिर के बल खड़ा करने कि बात करता है और लैंगिक आधार पर किसी भी तरह के विभेद को नकारता है। अखबार के अंतर्वस्तु को देखकर मेरे मन में कई सवाल तो हैं। लेकिन उससे भी ज़्यादा बड़ा सवाल यह है कि क्या हम आज के समय में ऐसे विषयों पर जो वर्चस्व का विरोध करती हो और जिनसे मूलभूत परिवर्तन की संभावना हो पर अखबारों या अन्य पापुलर जनमाध्यमों में गंभीर विमर्श की अपेक्षा रख सकते हैं? अखबरों और जनमाध्यमों में अंतर्वस्तु चयन की प्रक्रिया में यह खास ध्यान रखा जाता है कि उसके पाठक श्रोता वर्ग की संवेदनाओं को ठेंस न पहुंचे। माध्यम हमेशा ही प्रचलित जन मान्यताओं को भुनाने की फिराक में रहते हैं। आज अखबारों और जनमाध्यमों में पूंजी का दबाव पहले से कहीं ज़्यादा बढ़ा है। पूंजी का यह दबाव हमेशा यह कोशिश करता है कि समाज में यथास्थिति बनी रहे। समाज में सोच और विचार के स्तर पर किसी भी तरह का परिवर्तन पूंजी के निर्बाध प्रवाह में रुकावट पैदा करता है। इसलिए हम पाते हैं कि इनदिनों जनांदोलनों का बेतरह सरलीकरण कर लोगों के सामने उसे पेश किया जा रहा है। गैर सरकारी संगठन और जनमाध्यम मिलकर लोगों में पैदा होने वाली बदलाव की इच्छा को, अस्थाई समाधानों और अति सरल व्याख्या कर, कुंद कर रहे हैं।
तात्कालिक संदर्भों में हमें पितृसत्ता के नए-नए अवतारों और मुखौटों को पहचानने की ज़रूरत है। आज ‘स्त्रीवाद’ को जहां यह साबित करना है कि वह इस भूमंडलीकृत दौर में उस तथाकथित आधुनिकता का औज़ार नहीं है जहां स्त्रीमुक्ति का अर्थ फ्री सेक्स है। साथ ही उसे अलग अलग जगहों पर तालिबानियों, खाप पंचायतों और बहुतेरे जड़तावादी संस्थानों से लोहा लेना है। वहीं उसे आधुनिकता की परिभाषा भी गढ़नी है जहां स्त्री समानता का अर्थ बहुआयामी है। जैसा कि विख्यात स्त्रीवादी चारु गुप्ता कहती भी हैं “स्त्रीवाद को बेहद गतिशील होना पड़ेगा और जनता के अन्य आंदोलनों के साथ संबंधों के बीच अपनी सार्थकता ढूंढनी होगी। स्त्री आंदोलन की यह ताकत रही है कि वह दोस्त-दुश्मन और जुड़ाव-अलगाव को पहचानने में कामयाब रहा है”। हमें भी यही उम्मीद करनी चाहिए कि आंदोलन अपने नए दुश्मनों की पहचान ठीक से करे और इसे अछे दोस्त मिलें।
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