कविता कैसे बनती है यह बात अभी तक समझ में नहीं आई पर एक बात जो कविता के संबंध में बहुत साफ तौर से मानता हूँ कि आप इसका इस्तेमाल चर्च में बैठे उस पादरी कि तरह कर सकते हैं जो आपकी गलतियों को सुनता है और ईश्वर से प्रार्थना करता है कि वह आपके गुनाह माफ कर दे। आपको पता नहीं होता कि ईश्वर ने गुनाह माफ किए या नहीं पर आप अपने आप को उस गुनाह से मुक्त पाते हैं। कविता भी एक तरह का स्वीकार्य है आपके प्रेम का, गुस्से का, भय का, और फिर उन सब से मुक्ति भी ..........
साहस होने से साथ बनता है
या साथ होने से साहस
नहीं जान पता मैं अगर नहीं जानता तुम्हें
तुम्हें जानना साहस को जानना था
उसकी पूरी विनम्रता के साथ
ऐसा तो नहीं
की तुम्हारे बाद साहस नहीं होगा
हाँ यह है की, अब और साहस नहीं होगा
होगा उतना ही .....
तुम कहोगे
“साथ हूँ- पूरे साहस के साथ”
चिंताएँ और दुख
जो नितांत हमारे थे
तुमने उसे अपना समझा उसमें हिस्सेदारी की
जब हमारा वक़्त आया हम चूक गए
हमने कैसे कैसे तर्क गढ़े
की की की ,
यह सही समय नहीं है साहस को प्रकट करने का
यह की हम समझते हैं पर हम मजबूर हैं
हो सके तो कभी न माफ करना
उन स्याह रातों के लिए जो तुम्हारे दिनों में हमने भरे हैं
तुम दोष नहीं दोगे
पर तुम्हारे सपनों की रंगोली सजाने का फर्ज़ तो हमारा भी था न ?
वो दिन ............ वो रात
जब हम समझदारी के तकिये पर
मजबूरीयों का मुहावरा गढ़ रहे थे
यह ठीक है कि जो हुआ साजिशन नहीं हुआ
लेकिन हुआ यही
कि
जब हमारी उँगलियों को
तुम्हारी मुट्ठियों में शामिल होना चाहिए था
वो उलझी रहीं
किन्हीं और से
छोडते छोडते छोड़ देते थोड़ा और साहस
कि हम सह सकते तुम्हारी उन लानतों को
जो तुमने कभी नहीं दिये ....
जब कि तुम्हें करने चाहिए थे बहुत सारे सवाल
तुमने सिर्फ कहा
“एक्स क्यूज मी”
गुंजेश
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