थोड़ी देर चुप रहने के बाद बोले,‘‘यार बताओ,क्या विश्वविद्यालयों खास तौर से केंद्रीय विश्वविद्यालयों के विभागाध्यक्ष पढ़ते- वढ़ते नहीं?’’ उनका यह सवाल मुलायम सिंह के बयान की तरह अचानक आया था, सो हमने संभलते हुए पूछा, हुआ क्या? भैया बोले, ये बताओ कि तीन अप्रैल को क्या है? हमने फिर पूछा, क्या है? इस बार भैया मेरी तरफ मुखातिब हुए और बोले, खैर तुम तो पत्रकार हो तुमसे यही उम्मीद थी. लेकिन सिद्धार्थ, सिद्धार्थ की तरफ देखते हुए भैया बोले, तुम तो पढ़ते-लिखते हो तुम्हें तो पता होना चाहिए कि तीन अप्रैल को ‘हिंदी रंगमंच दिवस’ होता है. अच्छा, तो भैया के उखड़ने का कारण यह है. हमें बात समझ में आयी ही थी कि वह अचानक बोल पड़े,‘‘छोड़ो तुम्हें भी नहीं मालूम तो क्या हुआ? यह बात तो देश के विश्वविद्यालयों में नाटक, रंगमंच पढ़ानेवालों को भी नहीं पता है. उनमें जो स्वनामधन्य हैं और खुद को अपने विषय का हस्ताक्षर मानते हैं, में से कइयों को तो यह भी नहीं मालूम कि ऐसा कोई दिन होता है.’’
मनबिदका भैया बोल रहे थे और हम सुन रहे थे कि ये बताओ की क्या विश्वविद्यालयों में भी गंठबंधन धर्म निभाना होता है, जो शिक्षक लोग अपना काम ठीक से नहीं कर पाते? सिद्धार्थ ने भैया को रोकने की कोशिश की और कहा कि आप फालतुये लोड ले रहे हैं जरूरी थोड़े है कि सब को सब कुछ पता हो. मनबिदका भैया बिगड़ गये, ‘‘लेकिन आदमी को उसका जन्मदिन याद रहता है न? हिंदी के नाटककार को यह तो पता होना चाहिए कि पहला नाटक ‘जानकी मंगल’ कब खेला गया?’’ चूंकि यह कॉलम ‘बस यूं ही है’ और इसका नेचर गंभीर नहीं है, तो एक हंसी की बात सुनिये. मनबिदका भैया तीन अप्रैल से आज तक अपने मोबाइल को अपने से अलग नहीं कर रहे हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि बाकी तो नहीं, पर देश में हिंदी के नाम पर स्थापित विश्व के एक मात्र केंद्र में नाटय़ कला का विभाग देख रहे विभागाध्यक्ष महोदय उन्हें फोन जरूर करेंगे. वो सुबह कभी तो आयेगी की तर्ज पर भैया को यकीन है कि उनकी मीटिंग कभी तो खत्म होगी
जब वह चाहती थी की उसकी शादी हो जाये, तो कइयों को यह बात बुरी लगी थी और अब जब वह चाहती है कि वह तब्बू को रिप्लेस कर गुलजार से प्रेम करे, तो भी लोगों को बेहद आपत्ति है. फिर वह सिर्फ लोगों को ही क्यों दोष दे, उसके तो अपने शरीर के अंग भी तो उसका साथ नहीं देते.. वह ऐसे ही सब से विद्रोह करने के बारे में सोचना चाहती है, तो दिमाग की जगह दिल काम करने लगता है और आंखों के सामने मां का चेहरा सामने आ जाता. वह सोचती, कितना अच्छा होता कि अगर हम जब चाहें तब अपने अंगों का इस्तेमाल कर पाते, क्या देश और समाज हमारे अंदर इतना घुसा होता है कि मुश्किल वक्त में दिल-दिमाग, अंग-प्रत्यंग भी अलग-अलग सोचने लगते हैं, और कोई अंग सरकारी और कोई नक्सली हो जाता है. उसे उसके कान सबसे ज्यादा सरकारी लगते. एक कान दिल की सुनता है, तो दूसरा बहनों की, और न मालूम भाई की आवाज भी ये कमबख्त कहां छुपा कर रखता है, सलमान खान के बारे में सोचा नहीं कि उनकी आवाज गूंजने लगती ‘लड़का तो हमारी ही जाति का होना चाहिए’. तब वह सोचती कि कितना अच्छा होता कि रात में सोते समय ईयर रिंग की तरह अपने कान भी उतार कर रख देती जो हर सुबह उसके सपनों को लहूलुहान कर देता है.
छोड़िए अब आपको क्या बताऊं रूई-सी मुलायम, लड़की के सख्त ख्यालों के बारे में.. हर रोज काम पर जाने से पहले वह चाहती है कि काश! उसका दिल डिटैचेबल होता, तो वह अपने अंदर की मां को कमरे में बिठा कर, उन तमाम क्रूरताओं में दुनिया के साथ हिस्सेदारी करती जिसकी उम्मीद उससे की जाती है. वह भी लोगों को पछाड़ती, गिराती.. सबको रौंदती हुई आगे बढ़ जाती, सबसे आगे निकल जाती. और यह मुई शक्ल!!!! हाय उसे कितना प्यार आता है अपने ही चेहरे पर, लेकिन बाजार जाने से पहले जी करता है, जैसे अपने ही हाथों से नोच कर उतार दे. कितने हंगामे हैं, जो सिर्फ इसी की वजह से हैं.. जब देखो मुआ गुलाब-सा खिला रहता है
(28 नवंबर को प्रभात खबर में प्रकाशित)
और यह साहित्य से ज़्यादा व्यक्तिगत स्वतंत्रता का मामला है हर जगह 'तरीके' का सवाल रूढ़िवादियों (कानूनचियों) के लिए बड़ा हथियार है। हम कितने सीमित अर्थों में आज़ाद हुए हैं।
आज के दिन में मैं आर चेतन क्रांति की कविता को भी दर्ज़ करना चाहूँगा, चेतन जी की कवितायें हमारे समय की कवितायें हैं, आप बैंक में हों तो उनकी कविता, आप दफ्तर में हों तो उनकी कविता, सड़क पर हों तो उनकी कविता, हरे हुये हों या जीते हुए हों उनकी कविता साहस देती है
यह उनकी ताज़ी कविता जो उन्होने फेसबुक पर साझा की है
कविता: आर चेतनक्रांति : अब मन की मेहनत कर ताऊ !
मैंने यह कब कहा ताऊकि तेरे पिछवाड़े में गूदा कम हैऔर 'सांथल पर घसराऊ'* में तेरे घी-पीये साँडकमजोर हो गए हैं
मैंने तो बस यह कहा
कि 'यो छोरी' अलग सै
वह डर नहीं रही
बस बचकर निकल रही है
उसे तेरी आँखों से घिन है
कुछ ऐसा है उसके पास
जिसे तेरे हाथ से नहीं,
तेरी आँख से बचाना पहले जरूरी है।
बहुत सूक्ष्म, पर तेरे बाहुबल पर भारी
तू या तेरा कसरती दुधमुँहा
सरियों से उसे छलनी कर दे
तब भी वह रहेगी।
यह वलय
जो उसके नितम्बों से उठकर
हवा में लहर रहे हैं
यह आग!
हाँ ये वही है!
जिसको तूने सदियों ढाँपकर रखा
तापा
अपनी हथेलियों का निर्दय मांस
और आँच दी अपने कुनबे को
वह आँच, उसने अब अपनी कर ली है
संचित मादकता का
यह निर्बन्ध कम्पन
तुझे आमंत्रण नहीं है ताया,
हाथ पीछे! हाथ पीछे, राक्षस!
अपने चीतों को बरज
बता उन्हें
कि जितनी पास दिखती है दिल्ली
उतनी है नहीं
सीली-सकुचार्इ अपनी कचर-फचर बस्तियों में
यह माँ
अपनी जिन बेटियों को पोस रही है
वे तेरे सियार के जाँगर के बहुत-बहुत आगे जा चुकी हैं
वे सिर्फ मोबाइल फोन नहीं हैं
जो उनकी उँगलियों में हरदम बिंधा रहता है
न सिर्फ पगलार्इ खिलखिलाहट
जो बौराए बगुलों के झुंड की तरह
तेरे सिर के ऊपर से गुजर जाती है
न सिर्फ आसमानी जींस
जिसमें सुरक्षित उनकी 'जाँघें
तूझे अपने युकलिप्टसों में दिखती हैं
रातभर जिनकी कौंध
तुझे सोने नहीं देतीं
ताऊ
वे इस सबसे बाहर हैं
अपने माथे में
जिससे तेरी निगाह फिसल-फिसल जाती है
और काले चमकीले बालों के ध्वज में
जो अब लहराया जा चुका है
और जिससे गिरे फूल
समूची सभ्यता चुन रही है
ताऊ,
बेशक
वह भी चाहिए इन्हें
जिसे मुटठी में कसकर तू कहता है-मेरा नेजा
-हाय, मेरा सीधा खड़ा, बलवान नेजा
पर जो उन्हें आखिरकार चाहिए
वह बहुत सूक्ष्म है
नामालूम-सा
कि तेरी हथेली पर धरा रहे, और तुझे पता भी न हो
तू क्या देगा उसे अहमक!
अपने जिस्म के
शतमुखी संगीत में डूबीं
नंगी लड़कियों की यह फौज
अपनी आत्मा की चादर में
रोज़
एक महीन तार डालती है
तैंतीस करोड़ देवताओं की आँखों में मूतकर
जिसे तूने इतने जतन से-
न पहनने लायक छोड़ा!
न ओढ़ने लायक
दो अंगुल की कुरती
और छह अंगुल की पजामी पहनकर
ये उन खेतों को गोड़ने जाती हैं
जिन्हें तुम्हारे लौंडे सिर्फ लूटने जाते हैं
अपने कलछौंहे दिल से निकाल दे
कि ये किसी का बिस्तर गर्म करके आती हैं
बेवकूफ,
ये अपना आपा कमा रही हैं
जिसे इनके पुरखों ने
इनकी रूह से नोच फेंका था
तुम जिनमें आखिरी हो
ताऊ,
अब मन की मेहनत कर
यकीन कर
कुछ चीजें सच में होती हैं
जैसे र्इश्वर, जैसे सच्चार्इ,
जैसे 'इशक'
जिसे ऊपर पेड़ पर टाँगा तूने
और नीचे से ट्रैक्टर खींच लिया
जिसे रौंद डाला तूने
धोती चढ़ाकर
जैसे हव्वा गारा सानती थी घर के लिए
तूने काट दिया गला जिनका
दराँती से
वे भी आखिरी थीं
दिल्ली में उनकी अगली किश्त नहीं है
यह बीज अलग है
यह पौद अलग है
यह फसल अलग है
अपने हल, अपने खुरपे, अपने फावड़े, अपनी लाइसेंसी बन्दूकें,
बाँहों की मछलियाँ, जाँघों का जाँगर, मूँछें,
अपने बेसिर के लोथ शिश्न-योद्धा लड़कों को लेकर
तू जा यहाँ से
निकल, समेट अपना पसारा
आना, जब तेरे मुरैठे के बल कम हो जाएँ
जब तेरे सर में पड़ा मांस का पिंड
हरकत करने लगे
जब तुझे खुद लगने लगे
कि पहलवानी अब बस एक खेल है
जिसे देखकर बच्चे ताली बजाते हैं
इन बच्चियों को बख़्श
हमें इनसे बहुत उम्मीदें हैं।
'सांथल पर घसराऊ-'सांथल का अर्थ 'जाँघ, 'पर' मतलब 'पुर', 'घसराऊ-घिसरने वाला। इस तरह के पद अकसर पशिचमी उत्तर प्रदेश और शायद हरियाणा में भी, गाँवों के नाम होते हैं। लेकिन यह पद इन क्षेत्रों में 'शिश्न' के लिए प्रयोग किया जाता है-यानि जो जाँघ पर घिसरता रहता है।
मेरे ही सामने की
उसकी पैदाइश है !
पीछे लगी रहती है मेरे
कि टूअर-टापर वह
मुहल्ले के रिश्ते से मेरी बहन है !
चौके में रहती हूँ तो
सामने मार कर आलथी-पालथी
आटे की लोई से चिड़िया बनाती है !
आग की लपट जैसी उसकी जटाएँ
मुझ से सुलझती नहीं लेकिन
पेशानी पर उसकी
इधर-उधर बिखरी
दीखती हैं कितनी सुंदर !
एक बूंद चम-चम पसीने की
गुलियाती है धीरे-धीरे पर
टपके- इसके पहले
झट पोंछ लेती है उसको वह
आस्तीन से अपने ढोल-ढकर कुरते के !
कम से कम पच्चीस बार
इसी तरह
हमको बचाने की कोशिश करती है।
हमारे टपकने के पहले !
कभी कभी वह
लगा देती है झाड़ू घरों में!
जिनके कोई नहीं होता-
उन कातर वृद्धाओं की
कर देती है जम कर खूब तेल-मालिश।
दिन-दिन भर उनसे बतियाती है जो सो !
जब किसी को ओठ गोल किए
कुछ बोलते देखें गडमड-
समझ लें- वह खड़ी है वहीं
या ऊंघ रही है वहीं खटिया के नीचे-
छोटा-सा पिल्ला गोद में लिये !
बडे़ रोब से घूमती है वह
इस पूरे कायनात में।
लोग अनदेखा कर देते हैं उसको
पर उससे क्या?
वह तो है लोगों की परछाईं !
और इस बात से किसको होगा भला इनकार
आप लांघ सकते हैं सातों समुंदर
बस अपनी परछाईं नहीं लांघ सकते ।
निराला
भ्रष्टाचार क्या सच में सबसे बड़ा मसला है
यह भेदता और बेधता है कभी अंदर तक
रात की नींद उड़ायी है कभी इसने
कभी ले लिया है दिन और दिल का चैन
वैसे ही जैसे कभी सवर्ण बिटिया का किसी दलित के बेटू से
या सवर्ण के बेटे का दलित बिटिया से शादी कर लेने के बाद
मचता है कोहराम
होता है वज्रपात
टूट पड़ता है आसमान
सिर्फ मां-बाप, भाई-बहन ही नहीं
फुआ, मौसी, नानी, काकी, मामी...
सब नाक-मुंह फुला लेते हैं
एक झटके में जनम और खून का रिश्ता तोड़ने लगते हैं
सबसे छुपाते रहते हैं या कहते फिरते हैं
नाश कर दिया, कहीं का नहीं छोड़ा करमजला-करमजली
सच-सच बता जिस तरह जाति का मसला रगों में लहू की तरह दौड़ता है
मन में कुंडली मारे बैठा रहता है
और बात-बेबात असली चेहरा सामने ला देता है
वैसा ही कभी भ्रष्टाचार के मसले पर खौलता है खून
भ्रष्टाचार के मसले पर तोड़ते देखा है किसी को रिश्ता
ऐसा करने को सोचते हुए भी किसी के बारे में सोचा है कभी
कुछ नजीर है कि अपने ही भाई, बंधु, फुफा, मौसा, मामा से तोड़ दिया रिश्ता फलां ने
यह कहते हुए कि वे भ्रष्टाचारी हैं
ऐसा करने का साहस जुटाते हुए किसी भींड़ को देखना तो जरूर बताना
सच में भ्रष्टाचार तब डर जाएगा, भाग जाएगा वह
देखना, तब किसी अन्ना-अरूणा-लोकपाल की जरूरत नहीं पड़ेगी!
तू ही बता, क्या आसमान से टपका हुआ कोई शैतान भ्रष्टाचार करता है
तेरे-मेरे अपने ही तो करते हैं न
तो आओ एक बार उनसे रिश्ता तोड़ने की कसम लें
बंद करें उनसे किसी भी किस्म का संवाद
यह कहते हुए कि भ्रष्टाचारी हो आप, क्या बात करें आपसे...
आपने मेरी नींद, चैन सब उड़ा रखी है
सच में दोस्त, देखना उस रोज भ्रष्टाचार की हालत
खत्म हो जाएगा वह, मरने लगेगा अपनी मौत
क्या हम ऐसा एक बार भी करके देखें दोस्त
कई मुखौटों को उतारने की कोशिश करें
या फिर ऐसे ही रामनामी माला जपते रहें कि
एक-दो-तीन-चार
दूर करो ये भ्रष्टाचार...