‘यह बस यूं ही में जरूर है, लेकिन ‘बस यूं ही नहीं है.’ यह कहना ऐसा ही है जैसा उस दिन मनबिदका भैया बोले कि बात हंसने की जरूर है, लेकिन मजाक में लेने की नहीं है. हम जानते थे कि मनबिदका भैया ऐसी जटिल हिंदी तभी बोलते हैं, जब उन्हें कोई चीज बहुत बुरी लगी हो, उस समय पोस्ट होली खुमारी में थे और समझ रहे थे कि वह होली के मौके पर बजनेवाले ईल गीतों पर अपना क्षोभ प्रकट करेंगे और फिर हमें चाय पीने का ऑफर देंगे. लेकिन मनबिदका भैया हंस रहे थे और हंसते ही जा रहे थे. सिद्धार्थ ने पूछा, का भांग-ओंग खाये हैं क्या? जो इतना सुरयाये हुए हैं. चलिये चाय पीते हैं. चाय पीने के ऑफर ने मनबिदका भैया को चुप कराया.
थोड़ी देर चुप रहने के बाद बोले,‘‘यार बताओ,क्या विश्वविद्यालयों खास तौर से केंद्रीय विश्वविद्यालयों के विभागाध्यक्ष पढ़ते- वढ़ते नहीं?’’ उनका यह सवाल मुलायम सिंह के बयान की तरह अचानक आया था, सो हमने संभलते हुए पूछा, हुआ क्या? भैया बोले, ये बताओ कि तीन अप्रैल को क्या है? हमने फिर पूछा, क्या है? इस बार भैया मेरी तरफ मुखातिब हुए और बोले, खैर तुम तो पत्रकार हो तुमसे यही उम्मीद थी. लेकिन सिद्धार्थ, सिद्धार्थ की तरफ देखते हुए भैया बोले, तुम तो पढ़ते-लिखते हो तुम्हें तो पता होना चाहिए कि तीन अप्रैल को ‘हिंदी रंगमंच दिवस’ होता है. अच्छा, तो भैया के उखड़ने का कारण यह है. हमें बात समझ में आयी ही थी कि वह अचानक बोल पड़े,‘‘छोड़ो तुम्हें भी नहीं मालूम तो क्या हुआ? यह बात तो देश के विश्वविद्यालयों में नाटक, रंगमंच पढ़ानेवालों को भी नहीं पता है. उनमें जो स्वनामधन्य हैं और खुद को अपने विषय का हस्ताक्षर मानते हैं, में से कइयों को तो यह भी नहीं मालूम कि ऐसा कोई दिन होता है.’’
मनबिदका भैया बोल रहे थे और हम सुन रहे थे कि ये बताओ की क्या विश्वविद्यालयों में भी गंठबंधन धर्म निभाना होता है, जो शिक्षक लोग अपना काम ठीक से नहीं कर पाते? सिद्धार्थ ने भैया को रोकने की कोशिश की और कहा कि आप फालतुये लोड ले रहे हैं जरूरी थोड़े है कि सब को सब कुछ पता हो. मनबिदका भैया बिगड़ गये, ‘‘लेकिन आदमी को उसका जन्मदिन याद रहता है न? हिंदी के नाटककार को यह तो पता होना चाहिए कि पहला नाटक ‘जानकी मंगल’ कब खेला गया?’’ चूंकि यह कॉलम ‘बस यूं ही है’ और इसका नेचर गंभीर नहीं है, तो एक हंसी की बात सुनिये. मनबिदका भैया तीन अप्रैल से आज तक अपने मोबाइल को अपने से अलग नहीं कर रहे हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि बाकी तो नहीं, पर देश में हिंदी के नाम पर स्थापित विश्व के एक मात्र केंद्र में नाटय़ कला का विभाग देख रहे विभागाध्यक्ष महोदय उन्हें फोन जरूर करेंगे. वो सुबह कभी तो आयेगी की तर्ज पर भैया को यकीन है कि उनकी मीटिंग कभी तो खत्म होगी
थोड़ी देर चुप रहने के बाद बोले,‘‘यार बताओ,क्या विश्वविद्यालयों खास तौर से केंद्रीय विश्वविद्यालयों के विभागाध्यक्ष पढ़ते- वढ़ते नहीं?’’ उनका यह सवाल मुलायम सिंह के बयान की तरह अचानक आया था, सो हमने संभलते हुए पूछा, हुआ क्या? भैया बोले, ये बताओ कि तीन अप्रैल को क्या है? हमने फिर पूछा, क्या है? इस बार भैया मेरी तरफ मुखातिब हुए और बोले, खैर तुम तो पत्रकार हो तुमसे यही उम्मीद थी. लेकिन सिद्धार्थ, सिद्धार्थ की तरफ देखते हुए भैया बोले, तुम तो पढ़ते-लिखते हो तुम्हें तो पता होना चाहिए कि तीन अप्रैल को ‘हिंदी रंगमंच दिवस’ होता है. अच्छा, तो भैया के उखड़ने का कारण यह है. हमें बात समझ में आयी ही थी कि वह अचानक बोल पड़े,‘‘छोड़ो तुम्हें भी नहीं मालूम तो क्या हुआ? यह बात तो देश के विश्वविद्यालयों में नाटक, रंगमंच पढ़ानेवालों को भी नहीं पता है. उनमें जो स्वनामधन्य हैं और खुद को अपने विषय का हस्ताक्षर मानते हैं, में से कइयों को तो यह भी नहीं मालूम कि ऐसा कोई दिन होता है.’’
मनबिदका भैया बोल रहे थे और हम सुन रहे थे कि ये बताओ की क्या विश्वविद्यालयों में भी गंठबंधन धर्म निभाना होता है, जो शिक्षक लोग अपना काम ठीक से नहीं कर पाते? सिद्धार्थ ने भैया को रोकने की कोशिश की और कहा कि आप फालतुये लोड ले रहे हैं जरूरी थोड़े है कि सब को सब कुछ पता हो. मनबिदका भैया बिगड़ गये, ‘‘लेकिन आदमी को उसका जन्मदिन याद रहता है न? हिंदी के नाटककार को यह तो पता होना चाहिए कि पहला नाटक ‘जानकी मंगल’ कब खेला गया?’’ चूंकि यह कॉलम ‘बस यूं ही है’ और इसका नेचर गंभीर नहीं है, तो एक हंसी की बात सुनिये. मनबिदका भैया तीन अप्रैल से आज तक अपने मोबाइल को अपने से अलग नहीं कर रहे हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि बाकी तो नहीं, पर देश में हिंदी के नाम पर स्थापित विश्व के एक मात्र केंद्र में नाटय़ कला का विभाग देख रहे विभागाध्यक्ष महोदय उन्हें फोन जरूर करेंगे. वो सुबह कभी तो आयेगी की तर्ज पर भैया को यकीन है कि उनकी मीटिंग कभी तो खत्म होगी
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