कई बार, कई कहानियों को पढ़ते हुए इस (कु) पाठक के मन में यह प्रश्न उठता रहा है
कि जिस तरह से हर कथा में कई उपकथाएँ होतीं हैं क्या उसी तरह से कई उपकथाओं को जोड़
देने से कोई (सार्थक; अगर लेखक का उसपर यकीन हो तो) कहानी बन
सकती है? यह प्रश्न एक बार फिर मेरे सामने आया जब मैं
मिथिलेश प्रियदर्शी की कहानी “ऐन एंदेर हूं मां नंजक़न” का पाठ कर रहा था। मिथिलेश मेरे/हमारे समय के उन चुनिन्दा अफसाना निगारों
में हैं जिनकी कहानियों में खुद को नोटिस कराने की अद्भुत क्षमता है। “ऐन एंदेर हूं मां नंजक़न” शीर्षक कुडुख बोली से लिया गया शब्द है
जिसका मतलब है ; मैंने कुछ नहीं किया। इस कहानी की सबसे अहम
पंक्ति शीर्षक और लेखक के नाम के बाद लिखी गई पंक्ति है जो इस कहानी के मेरे पाठ
को प्रभावित करती है। वह पंक्ति है ; “उन तमाम संस्कृतिकर्मियों और लोगों को याद करते
हुए जो फर्जी आरोपों में जेलों में क़ैद हैं”। मेरा यकीन है कि हिन्दी (समाज)
में सामान्य तौर पर कहानी के टेक्स्ट के अलावा भी कहानी के साथ जुड़ी अन्य
जानकारियाँ लेखक का नाम- पता भी कहानी के पाठ को प्रभावित करती है। और फिर इस
कहानी के लेखक का यह दावा तो कहानी को एक खास राजनीतिक आयाम देता है। बतौर पाठक
मैं पूरी कहानी में उस राजनीतिक आयाम को ढूँढने की कोशिश करता हूँ। क्या ही अच्छा
होता अगर लेखक के बिना लिखे ही (गो की उसके लिखने और ना लिखने पर उसकी अपनी
स्वतंत्रता है) हमें उन तमाम संस्कृतिकर्मियों और लोगों की याद आ जाती जो फर्जी
आरोपों में जेल में कैद है। जब मैं यह लिख रहा हूँ तो यह उस सामान्य समझदारी से
आने वाली याद नहीं है जो हम अखबारों में खबरों को पढ़ कर समझ लेते हैं। साहित्य
रचना समाज की पीड़ाओं को उच्यतर आवेगों में दर्ज करना है। क्या मिथलेश की कहानी इस
बार ऐसा करने में सफल हो पाई है? अव्वल तो हाँ या नहीं में
इसका जवाब देते नहीं बनता, बल्कि बाज दफ़े इसका जवाब नहीं के
करीब ही है। क्यों, कैसे इसके जवाब से पहले आइए देखते हैं
कहानी की ज़मीन क्या है।
जैसा की लेखक ने खुद शीर्षक चुना है कुड़ुख बोली
से। जो कहानी के अंत में कहानी का मुख्य पात्र बोलता है। कुड़ुख,
झारखंड-बिहार और ओड़ीशा और बंगाल सीमावर्ती क्षेत्रों में रहने वाले आदिवासियों की
बोली है। कहानी का मुख्य पात्र एक ठेठ (अपनी एतिहासिक परंपरा से जुड़ा हुआ भी)
आदिवासी लड़का है, एमैन्यूल। संक्षेप में कहानी यह है कि एमैन्यूल, गाँव में अपने पिता, भाई,
मौसी यानि पूरे परिवार के साथ रहता है। वहीं लिसा नाम की एक लड़की भी थी, दोनों प्रेम में थे। एक फादर हैं जिन्होने एमैन्यूल और लिसा को पढ़ाया है।
लिसा चर्च के किसी ब्रदर के साथ शहर चली गई है और अब एमैन्यूल उसे बेतरह याद करता
है। फादर के कहने पर आगे कि पढ़ाई करने वह शहर जाता है। जहां वह अपने गाँव को शहर
में रहने वाली लिसा को बड़ी शिद्दत (यह लेखक कि सफलता है कि “बड़ी शिद्दत” वाली बात
पढ़ने से ही महसूस हो जाती है) से याद करता है। लेकिन फिर एक दिन किन्हीं संयोग से
वह एक ऐसे सांस्कृतिक कार्यक्रम का दर्शक बन जाता है जिसमें सरकार और व्यवस्था
विरोधी गीत गाए जा रहे थे। पुलिस वहाँ पहुँचती है और एमैन्यूल को पकड़ कर ले जाती
है। एमैन्यूल “ऐन एंदेर हूं मां नंजक़न” चिल्लाता रहता है पर उसकी आवाज़ नहीं सुनी जाती। जाहीर है कभी सुनी भी
नहीं गई है। कहानी यहीं खत्म हो जाती है।
कहानी का सबसे मजबूत पक्ष
है इसकी भाषाई तरलता, हालांकि यह इतना निर्दोष भी नहीं
है लेकिन फिर भी..., इसपर आगे चर्चा करेंगे। कहानी पढ़ कर जो
दो सवाल मेरे मन में आए वो यह कि क्या यह 1.राजनीतिक और 2. भौगोलिक रूप से एक
करेक्ट कहानी है। दूसरे सवाल को पहले देखते हैं ;
इस अरबों
की आबादी वाली दुनिया में एक बड़ी संख्या उनकी है, जो थोड़ी खुशियों के बीच जन्म लेते हैं, चंद
उम्मीदों के सहारे पाले जाते हैं, कुछ आशाओं के साथ बड़े
होते हैं, और अंत में तयशुदा गुमनामी में एक जरूरी मौत मर
जाते हैं। कल पैदा हुए, आज बड़े और कल मर गए। दुनिया की
पैदाइशी फितरत कि वह केवल शक्तिशालियों की बात करती है और दुनियावी मुहावरे में
इनका कुछ भी उल्लेखनीय नहीं होता, न जन्म, न जीवन, न मृत्यु, जीवन के
खतरनाक मोड़ों से ये इतने सताये हुए होते हैं कि इनकी पूरी उम्र बच-बच के जीने में
निकल जाती है।
एमैन्यूल
इसी भीड़ का एक सदस्य था, जिसे उसके परिवार
प्रेमी पिता फैलिक्स भेंगरा ने सिखाया था, जीवन सावधानी से
जीने की चीज है, जैसे हम गोभी के पौधों को संभालते हैं,
जैसे अपनी मुर्गियों को बड़ा करते हैं। जीवन कच्ची शराब की तरह पी
जाने के लिए नहीं है। इसे सेम के लतरों की तरह अच्छे से ऊपर की ओर चढ़ाना पड़ता
है। संवारना पड़ता है।
क्या आदिवासी इलाकों में
इस तरह का डर, इस तरह की सावधानी पाई जाती है। या फिर यह एक
कस्बाई डर है। आदिवासी प्रकृति की एक स्वतंत्र इकाई हैं जो समूह में ज़रूर रहते हैं
लेकिन किसी भीड़ का हिस्सा नहीं है। समय के साथ उसके भूगोल में चर्च और मंदिरों ने
प्रवेश ज़रूर कर लिया है लेकिन अभी उसका ईश्वर उसके आस-पास के पेड़ पौधों में ही
रहता है। शहर को लेकर एक संकोच ज़रूर है, लेकिन जिस डर की
क्राफ्टिंग मिथिलेश की कहानी में है वह आदिवासियों के मुक़ाबले हम जैसे छोटे-छोटे
कस्बों से बड़े शहरों में आए उसी को नियति बना लेनेवाले लोगों में ज़्यादा है। जहां
भी आदिवासियों को यह डर लगा है शहरी मगरमछ उसे लीलने को आ रहा है तब-तब आदिवासियों
ने आंदोलन खड़े किए हैं। इतनी सहजता से हथियार डाल देना कस्बाई निम्न मध्यम और
मध्यम वर्ग की पहचान तो हो सकती है आदिवासियों की कतई नहीं ;
“फादर उसे बताते कि अब दूध लेकर
अब्राहम उनके पास आता है और दिन भर स्कूल में बच्चों के साथ खेलता है। अब वह जंगल
कम जाता है। पुलिस ने बकरी चराने गए गांव के तीन लड़कों को मार दिया है, यह कहकर कि वे उन पर हमला करने वाले
थे। पर उसके पिता फैलिक्स ने जंगल जाना नहीं छोड़ा है। उन्हें जंगल में एक नया बीज
मिला है, जिसके पौधों के आसमानी फूलों का चूरा बनाकर खाने से भूख खत्म होने का
एहसास होता है। उनकी मौसी सिसिलिया ने एक मीठे पानी का झरना ढूंढ़ा है, पर वन विभाग के सिपाही उसे वहां तक
नहीं जाने देते कि कहीं झरने का शीशे जैसा पानी गंदला न हो जाए, वे दुनिया के लोगों को घुमाने के लिए
यहां लाना चाहते हैं”।
आइए अब कहानी की राजनीति
पर बात करते हैं। मैं (देरीदा के) इस बात का मुरीद हूँ कि “हर लेखन में एक गुप्त
राजनीति होती है”। साथ ही इसका भी कि “भाषा में स्थित अंतर्विरोधों को कोई लेखक
अपने इरादों से पाट नहीं सकता है”। क्या बतौर समाज हम आदिवासियों को जिस तरह से
देखते हैं या आदिवासी हमारी तरफ जिस तरह से देखते हैं, मुझे कहना चाहिए जितनी दूरी से देखते हैं हमारी भाषा उस दूरी को पाटने
में हमारी मदद कर सकती है? यह बात सिर्फ मिथिलेश की ही कहानी
पर नहीं बल्कि हाल के दिनों में आए एक ओवररेटेड उपन्यास ‘गायब
होता देश’ (लेखक: रणेन्द्र) पर भी लागू होती है। एक ओर जहां
एक लेखक अपने लेखन में ‘देश’ और ‘देस’ के फर्क को नहीं समझ पता है। (जिसपर कभी विस्तार से
लिखुंगा) तो दूसरी ओर मिथिलेश हैं जो प्रेम के टूटने के मध्यम वर्गीय कारणों को
आदिवासी कमिटमेंट पर हवी होने देते हैं। इस पैरा की शुरुआत में जब मैं “भाषा में
स्थित अंतर्विरोधों को कोई लेखक अपने इरादों से पाट नहीं सकता है” के समर्थन में
खड़ा हूँ तो दरअसल मैं लेखकों से इस सावधानी की उम्मीद करता हूँ कि वह अपने टेक्स्ट
में भाषा के अंतर्विरोधों को पाटने की ईमानदार कोशिश करता दिखे। यहाँ लेखक उसे
पाटने की कोशिश तो दूर, कमोबेश उसे ग्लैमराइज़ करता नज़र आ रहा
है।
यह सच है कि कोई पाठक या
आलोचक यह हैसियत नहीं रखता कि वह कहानीकार को यह डिक्टेट करे उसे कहानी को कैसे
बरतना चाहिए था। लेकिन पाठक का यह अधिकार बनता है और लेखक कि यह ज़िम्मेदारी बनती
है कि, वह कहानी को इस तरह से गढ़े कि कहानी की केन्द्रीय समस्या, जिस ओर लेखक लक्ष्य कर रहा है, स्पष्ट रहे। खास तौर
से ऐसे विषयों में जिसमें बांकी माध्यमों में स्पष्ट रूप से कुछ भी कह पाना नामुमकिन
के करीब है। यहाँ एमैन्यूल जो कहानी का केंद्रीय आदिवासी पात्र है, लिसा से
प्रेम करता है, लिसा उससे संबंध तोड़ कर किन्हीं ब्रदर के साथ
नर्स बनने शहर चली जाती है, एमैन्यूल के दिमाग में आत्महत्या
का ख्याल आता है लेकिन वह अपनी समाजिकता की वजह से अपने उस ख्याल को रहने देता है।
क्या लिसा सिर्फ नर्स बनने की उम्मीद पर ब्रदर के साथ चली गई? एमैन्यूल के प्रेम की जगह इस उम्मीद को प्रतिस्थापित करने की प्रक्रिया
यानि पलाश की जगह गुलदावदी बोने की प्रक्रिया क्या रही? इसकी
तलाश न तो लेखक और न ही कहानी का केंद्रीय पात्र एमैन्यूल करता है। यहीं, एक फादर हैं जो गाँव में स्कूल चलाते हैं और एमैन्यूल को पढ़ना चाहते हैं।
वह ऐसा क्यों करना चाहते हैं (आदिवासी क्षेत्रों में चर्च और मिशनरियों को ध्यान
में रखते हुए ) इसके पीछे उनका क्या मोह है? कहानी में इसका
भी जिक्र नहीं है। ध्यान से पढ़ा जाय तो कहानी का केंद्रीय पात्र एक डर है, लेकिन वह कौन सा डर है उसके फैक्ट्स क्या हैं। इसे अगर इस तरह से कहूँ कि
कहानी रूपी ब्रेड पर डर का मख्खन ज़रूर पूता हुआ है और हर पंक्ति में उस डर का
स्वाद मौजूद है लेकिन इतना भर हो जाने के बावजूद डाइट पूरा नहीं हो जाता। वह डर
क्या है, इसे डिकोड न तो नरेटर कर पा रहा है और न ही एमैन्यूल।
किसी जगह पर इस्मत चुगतई ने खुद के अफसाना लिखने के बारे में लिखा है जिसका आशय
कुछ इस तरह का है कि वह कहानियाँ इसलिए लिखती हैं कि इस विधा में कड़वी से कड़वी बात
भी आसानी से कही जा सकती है। जो लेखों या अन्य माध्यमों में कहना मुश्किल है। फिर
ऐसी कौन सी बात है जिसकी तरफ लेखक सिर्फ इशारा कर के निकाल जाना चाहता है। इस
किस्से में पुराने किस्सों का ‘भावनात्मक लिरिसिज़्म’ तो है, लेकिन नई परिस्थितियों में इस कहानी की जमीन
पर उपजे द्वंद और उस द्वंद के कारणों की राजनीतिक, आर्थिक
कारणों की पड़ताल नहीं की गई है। जो घट रहा है वह तो दर्ज़ किया गया है लेकिन वह
क्यों घट रहा है, जिसके बारे में सिर्फ एक कलाकार, रचनाकार ही बता सकता है, उसके पीछे भागने जहमत लेखक
ने नहीं उठाई है।
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