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ऐसे हुआ हूल

Posted by हारिल On Monday, June 13, 2016 0 comments


  • गुंजेश 

यदि मैं आपको अभी बता दूं कि आगे के पूरे लेख में आप एक किताब के बारे में पढ़ेंगे. एक ऐसी किताब जो 1857 की स्वतंत्रता संग्राम की पूर्व पीठिका का औपन्यासिक दस्तावेज होने का दावा करती है. स्वतंत्रता संग्राम की पूर्व पीठिका अर्थात ‘संताल हूल’. जिसमें पहली बार संतालों ने यह सवाल उठाया था कि यह जमीन ईश्वर की, हम ईश्वर के बेटे फिर बीच में यह सरकार कहां से आ गयी. ठीक है कि आप जानते हैं कि ‘यह आंदोलन 30 जून 1855 से सितंबर 1856 तक चला’ यह भी कि ‘इसका नेतृत्व सिद्धू एवं कान्हू ने किया था’ और यह भी कि ‘दो बहने फूलो और झानो हूल का निमंत्रण बांटा करती थी’. इन सब जानकारियों के बावजूद आप यह नहीं जानते होंगे कि भुंइयां राजा कौन थे और पश्चिम से आनेवाले शत्रुओं से रक्षा करनेवाले भुंइयां राजा और इनकी प्रजा ने धरती से ‘बिलकुल अलग थलग’ और ‘स्वतंत्र संताल ’ होने की मांग क्यों की थी. 
तो भी गुगल सर्च के जमाने में महज 150 वर्षो से कुछ ज्यादा पुरानी घटना, भले ही वह कितनी ही ऐतिहासिक क्यों न हो, के बारे में जानने के लिए आप क्यों लगभग 90 वर्ष पुराने उपन्यास को पढ़ें. वह भी एक ऐसा उपन्यास जिसे एक तत्कालीन अंगरेज शासक ने लिखा हो. यहां एक बात समझ लेने की जरूरत होगी कि अभी तक कुछ इतिहास कारों को छोड़ कर ज्यादातर इतिहास लेखन किसी न किसी राजनीतिक, धार्मिक दबाव में ही हुआ है और इस पर भी आदिवासियों या अन्य दमित समुदायों के बारे में लिखा गया लोकप्रिय (पॉपुलर) इतिहास तो ‘शिकारियों का शिकार पर लिखा गया इतिहास’ ही है. लोकप्रिय इतिहास के बारे में एक और बात यहां समझ लेने की जरूरत है कि यह हमें घटनाओं के घटने की जानकारी तो देती है लेकिन उन घटनाओं के घटने की प्रक्रिया क्या रही वो कौन से सामाजिक आर्थिक द्वंद्व रहे जो घटना के होने के जिम्मेदार रहे यह जानकारी हमें  उस समय के जिम्मेदार साहित्य से ही मिलती है. अंगरेज कवि शैले ने अपने लेख ‘कविता के पक्ष में’ (अ डिफेंस ऑफ द पोएट्री) में इस बारे में विस्तार से लिखा भी है.
बहरहाल, मैं जिस औपन्यासिक दस्तावेज की बात कर रहा हूं वह रॉबर्ट कार्सटेयर्स के द्वारा लिखित (हाड़माज विलेज)और शिशिर टुडू द्वारा अनुवादित ‘ऐसे हुआ हूल’ है. कार्सटेयर्स 1885 से 1898 तक तत्कालीन संताल परगना जिला के डिप्टी कमिश्नर रहे थे. वह करीब 13 वर्षो तक दुमका में पदस्थापित रहे उन्होंने अपनी यादों को ‘हाड़माज विलेज’ में दर्ज किया जो 1935 में किताब की शक्ल में आयी. यहां यह बताना भी रोचक होगा कि 1935 में  ‘हाड़माज विलेज’ सिर्फ सौ प्रतियां ही छपी जिसे प्रकाशन के कुछ ही समय के बाद तत्कालीन कंपनी सरकार द्वारा प्रतिबंधित कर दिया गया. किताब में न केवल पहाड़िया और संतालों के बीच के बुनियादी फर्क को दर्ज किया गया है बल्कि आदिवासी समाज की प्रकृति आधारित प्राकृत जीवन पद्धति को, उसके बुनियादी समाजशास्त्र को, सामाजिक सहभागिता के उनके सहज नियमों को बेहतरीन और काफी हद तक तटस्थ तरीके दर्ज किया गया है.  
शिशिर टुडू  के सरल और सार्थक अनुवाद में इस उपन्यास को पढ़ते हुए आप बरबस ही संताल (दुमका, गोड्डा और उसके आस पास) के इलाकों में पहुंच जायेंगे. इस किताब को पढ़ते हुए हम उस ऐतिहासिक चूक से भी वाकिफ होते हैं जो हमारे ज्यादातर लोकप्रिय इतिहासकारों या इतिहास से संबंधित चीजों को लिखनेवालों ने की है; आमतौर से हमारा इतिहास लेखन पुरातात्विक अवशेषों और बहुत हाल की बात करें तो ‘कार्बन 14’ जैसी भौतिक विज्ञान पर आधारित  पद्धतियों पर निर्भर करता है. लेकिन जब आदिवासी या सब्लार्टन इतिहास लेखन की बात आती है तो ये विधियां हमारा बहुत साथ नहीं दे पाती और हमारा लिखना सिर्फ हमारे अनुमानों पर आधारित हो जाता है. ऐसे में ‘ऐसे हुआ हूल’ उन तमाम इतिहास कार्यो पर भारी पड़नेवाला उपन्यास है. उपन्यास पढ़ते हुए हम उन द्वंद्वों को बखूबी समझ पाते हैं जिनकी वजह से शांति प्रिय संताल एक खूनी संघर्ष करने को मजबूर हुए. हूल की कहानी केवल एक जमीन या सत्ता के संघर्ष की कहानी नहीं है. यह एक समुदाय की उस चेतना के संघर्ष की कहानी है जिससे उसकी अस्मिता जुड़ी हुई है, और जिसके (चेतना) के अभाव में वह समुदाय खुद को जीवित भी मानने को तैयार नहीं होगा. हूल जीवित रहने के अधिकार की लड़ाई भर नहीं था बल्कि अपने शर्तो पर जीवित रहने के लिए संतालों ने अंगरेजों के खिलाफ हूल का आह्वान किया था.
जैसा कि उपन्यास की प्रस्तावना में वरिष्ठ पत्रकार हेमंत ने लिखा है कि ‘उपन्यास पढ़ते हुए ऐसा प्रतीत होगा कि आप संताल परगना के संताल गांवों को वर्ष के विभिन्न मौसमों और त्योहारों के अवसर पर अपनी आंखों से देख रहे हैं.’ कार्सटेयर्स के लिखने की सबसे खास बात यह रही कि उन्होंने इस उपन्यास में अंगरेजी दिक्  और काल (टाइम एंड स्पेस) का इस्तेमाल न करते हुए आदिवासी दिक् और काल को दिखाने का यथा संभव प्रयास किया है. हालांकि कार्सटेयर्स ने हूल के मुख्य नायकों सिद्धू और कान्हू और उनके परिवार वालों का जिक्र उतना करने से बचते दिखे हैं जितना आंदोलन के मुख्य नायक होने के नाते उन्हें करना चाहिए था.
हालांकि, इस बात के लिए कार्सटेयर्स  को रियायत दी जा सकती है. हमें यह समझना होगा कि इस दंडीमारी के बावजूद, कि सिद्धू कान्हू को प्राथमिकता देने के बजाय कार्सटेयर्स  ने अपने उपन्यास के बड़े हिस्से में ‘साम टुडू’ और ‘हाड़मा’ के चरित्र चित्रण किया और न केवल उन्हें सिद्धू कान्हू के बरक्स हूल का नेता बनाया बल्कि बाज दफे ‘साम टुडू’ और ‘हाड़मा’ को अंगरेजों के प्रति सहानूभुति रखनेवाला भी दिखाया, कार्सटेयर्स ने कहीं पर भी आदिवासियों को कम सभ्य या समझदारी वाला नहीं दिखाया, जबकि ज्यादातर अंगरेज और अब भी ‘अंगरेजीयत की शिकार’ (इलीट समाज) आदिवासियों को कम सभ्य और खुद को उनका उत्थान करनेवाला ही मानते हैं. हमें यह भी समझना होगा कि कार्सटेयर्स एक प्रशासनिक पदाधिकारी थे और पद पर रहते हुए उनकी कुछ व्यावहारिक सीमाएं भी थी. जिसके बाहर जाना कार्सटेयर्स के लिए संभव न रहा होगा. किताब में हूल की कहानी क्या है से ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि किस तरह से संताल समाज को चित्रित किया गया है. यकीन के साथ कहा जा सकता है कि न केवल सन 35 के आस पास जिन शहरी लोगों (जो आदिवासी समाजों के बारे में या तो बहुत कम या बहुत भयावह जानकारियां रखते होंगे) ने इस उपन्यास को पढ़ा होगा उनके सामने आदिवासियों की काफी अलग और वस्तुनिष्ठ छवी बनी होगी और आदिवासियों को लेकर उनकी समझदारी में  बुनियादी फर्क आया होगा और आज भी जब जगह जगह आदिवासियों को मुख्यधारा में शामिल करने के नाम पर बरबर सरकारी कार्रवाइयां हो रही है तब एक बार फिर जरूरत है कि सरकार कार्सटेयर्स के लिखे इस दस्तावेज से समङो की वास्तव में आदिवासी होना क्या है. विनोद कुमार शुक्ल की एक कविता है ‘जो प्रकृति के सबसे निकट है’:
जो प्रकृति के सबसे निकट है
 जंगल उनका है
आदिवासी जंगल के सबसे निकट है
 इसलिए जंगल उनका है
अब उनके बेदखल होने का समय है
यह वही समय है जब आकाश से पहले एक तारा बेदखल होगा
जब पेड़ से पक्षी बेदखल होगा
आकाश से चांदनी बेदखल होगी
जब जंगल से आदिवासी बेदखल होंगे. 

इस समय में शिशिर टुडू  का यह काम इसलिए महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि ‘ऐसे हुआ हूल’ हमें यह तुलना करने का मौका देता है कि 150 वर्ष पहले और की स्थितियों में क्या फर्क आया है. आदिवासी कितने सुरक्षित/ असुरक्षित हुए हैं. हूल की स्थितियों में कितना परिवर्तन हुआ है. हालांकि, हिंदी में इस उपन्यास को आने में काफी समय लगा इससे पहले यह अंगरेजी, संताली, बांग्ला और उर्दू में प्रकाशित हो चुकी है. 


“ऐन एंदेर हूं मां नंजक़न” को पढ़ते हुए...

Posted by हारिल On Friday, April 24, 2015 0 comments

कई बार, कई कहानियों को पढ़ते हुए इस (कु) पाठक के मन में यह प्रश्न उठता रहा है कि जिस तरह से हर कथा में कई उपकथाएँ होतीं हैं क्या उसी तरह से कई उपकथाओं को जोड़ देने से कोई (सार्थक; अगर लेखक का उसपर यकीन हो तो) कहानी बन सकती है? यह प्रश्न एक बार फिर मेरे सामने आया जब मैं मिथिलेश प्रियदर्शी की कहानी ऐन एंदेर हूं मां नंजक़न का पाठ कर रहा था। मिथिलेश मेरे/हमारे समय के उन चुनिन्दा अफसाना निगारों में हैं जिनकी कहानियों में खुद को नोटिस कराने की अद्भुत क्षमता है। ऐन एंदेर हूं मां नंजक़न शीर्षक कुडुख बोली से लिया गया शब्द है जिसका मतलब है ; मैंने कुछ नहीं किया। इस कहानी की सबसे अहम पंक्ति शीर्षक और लेखक के नाम के बाद लिखी गई पंक्ति है जो इस कहानी के मेरे पाठ को प्रभावित करती है। वह पंक्ति है ;उन तमाम संस्कृतिकर्मियों और लोगों को याद करते हुए जो फर्जी आरोपों में जेलों में क़ैद हैं”। मेरा यकीन है कि हिन्दी (समाज) में सामान्य तौर पर कहानी के टेक्स्ट के अलावा भी कहानी के साथ जुड़ी अन्य जानकारियाँ लेखक का नाम- पता भी कहानी के पाठ को प्रभावित करती है। और फिर इस कहानी के लेखक का यह दावा तो कहानी को एक खास राजनीतिक आयाम देता है। बतौर पाठक मैं पूरी कहानी में उस राजनीतिक आयाम को ढूँढने की कोशिश करता हूँ। क्या ही अच्छा होता अगर लेखक के बिना लिखे ही (गो की उसके लिखने और ना लिखने पर उसकी अपनी स्वतंत्रता है) हमें उन तमाम संस्कृतिकर्मियों और लोगों की याद आ जाती जो फर्जी आरोपों में जेल में कैद है। जब मैं यह लिख रहा हूँ तो यह उस सामान्य समझदारी से आने वाली याद नहीं है जो हम अखबारों में खबरों को पढ़ कर समझ लेते हैं। साहित्य रचना समाज की पीड़ाओं को उच्यतर आवेगों में दर्ज करना है। क्या मिथलेश की कहानी इस बार ऐसा करने में सफल हो पाई है? अव्वल तो हाँ या नहीं में इसका जवाब देते नहीं बनता, बल्कि बाज दफ़े इसका जवाब नहीं के करीब ही है। क्यों, कैसे इसके जवाब से पहले आइए देखते हैं कहानी की ज़मीन क्या है।
जैसा की लेखक ने खुद शीर्षक चुना है कुड़ुख बोली से। जो कहानी के अंत में कहानी का मुख्य पात्र बोलता है। कुड़ुख, झारखंड-बिहार और ओड़ीशा और बंगाल सीमावर्ती क्षेत्रों में रहने वाले आदिवासियों की बोली है। कहानी का मुख्य पात्र एक ठेठ (अपनी एतिहासिक परंपरा से जुड़ा हुआ भी) आदिवासी लड़का है, एमैन्यूल। संक्षेप में कहानी यह है कि एमैन्यूल, गाँव में अपने पिता, भाई, मौसी यानि पूरे परिवार के साथ रहता है। वहीं लिसा नाम की एक लड़की भी थी, दोनों प्रेम में थे। एक फादर हैं जिन्होने एमैन्यूल और लिसा को पढ़ाया है। लिसा चर्च के किसी ब्रदर के साथ शहर चली गई है और अब एमैन्यूल उसे बेतरह याद करता है। फादर के कहने पर आगे कि पढ़ाई करने वह शहर जाता है। जहां वह अपने गाँव को शहर में रहने वाली लिसा को बड़ी शिद्दत (यह लेखक कि सफलता है कि “बड़ी शिद्दत” वाली बात पढ़ने से ही महसूस हो जाती है) से याद करता है। लेकिन फिर एक दिन किन्हीं संयोग से वह एक ऐसे सांस्कृतिक कार्यक्रम का दर्शक बन जाता है जिसमें सरकार और व्यवस्था विरोधी गीत गाए जा रहे थे। पुलिस वहाँ पहुँचती है और एमैन्यूल को पकड़ कर ले जाती है। एमैन्यूल ऐन एंदेर हूं मां नंजक़न चिल्लाता रहता है पर उसकी आवाज़ नहीं सुनी जाती। जाहीर है कभी सुनी भी नहीं गई है। कहानी यहीं खत्म हो जाती है।
कहानी का सबसे मजबूत पक्ष है इसकी भाषाई तरलता, हालांकि यह इतना निर्दोष भी नहीं है लेकिन फिर भी..., इसपर आगे चर्चा करेंगे। कहानी पढ़ कर जो दो सवाल मेरे मन में आए वो यह कि क्या यह 1.राजनीतिक और 2. भौगोलिक रूप से एक करेक्ट कहानी है। दूसरे सवाल को पहले देखते हैं ;
इस अरबों की आबादी वाली दुनिया में एक बड़ी संख्या उनकी है, जो थोड़ी खुशियों के बीच जन्म लेते हैं, चंद उम्मीदों के सहारे पाले जाते हैं, कुछ आशाओं के साथ बड़े होते हैं, और अंत में तयशुदा गुमनामी में एक जरूरी मौत मर जाते हैं। कल पैदा हुए, आज बड़े और कल मर गए। दुनिया की पैदाइशी फितरत कि वह केवल शक्तिशालियों की बात करती है और दुनियावी मुहावरे में इनका कुछ भी उल्लेखनीय नहीं होता, न जन्म, न जीवन, न मृत्यु, जीवन के खतरनाक मोड़ों से ये इतने सताये हुए होते हैं कि इनकी पूरी उम्र बच-बच के जीने में निकल जाती है।
एमैन्यूल इसी भीड़ का एक सदस्य था, जिसे उसके परिवार प्रेमी पिता फैलिक्स भेंगरा ने सिखाया था, जीवन सावधानी से जीने की चीज है, जैसे हम गोभी के पौधों को संभालते हैं, जैसे अपनी मुर्गियों को बड़ा करते हैं। जीवन कच्ची शराब की तरह पी जाने के लिए नहीं है। इसे सेम के लतरों की तरह अच्छे से ऊपर की ओर चढ़ाना पड़ता है। संवारना पड़ता है। 
क्या आदिवासी इलाकों में इस तरह का डर, इस तरह की सावधानी पाई जाती है। या फिर यह एक कस्बाई डर है। आदिवासी प्रकृति की एक स्वतंत्र इकाई हैं जो समूह में ज़रूर रहते हैं लेकिन किसी भीड़ का हिस्सा नहीं है। समय के साथ उसके भूगोल में चर्च और मंदिरों ने प्रवेश ज़रूर कर लिया है लेकिन अभी उसका ईश्वर उसके आस-पास के पेड़ पौधों में ही रहता है। शहर को लेकर एक संकोच ज़रूर है, लेकिन जिस डर की क्राफ्टिंग मिथिलेश की कहानी में है वह आदिवासियों के मुक़ाबले हम जैसे छोटे-छोटे कस्बों से बड़े शहरों में आए उसी को नियति बना लेनेवाले लोगों में ज़्यादा है। जहां भी आदिवासियों को यह डर लगा है शहरी मगरमछ उसे लीलने को आ रहा है तब-तब आदिवासियों ने आंदोलन खड़े किए हैं। इतनी सहजता से हथियार डाल देना कस्बाई निम्न मध्यम और मध्यम वर्ग की पहचान तो हो सकती है आदिवासियों की कतई नहीं ;  
“फादर उसे बताते कि अब दूध लेकर अब्राहम उनके पास आता है और दिन भर स्कूल में बच्चों के साथ खेलता है। अब वह जंगल कम जाता है। पुलिस ने बकरी चराने गए गांव के तीन लड़कों को मार दिया है, यह कहकर कि वे उन पर हमला करने वाले थे। पर उसके पिता फैलिक्स ने जंगल जाना नहीं छोड़ा है। उन्हें जंगल में एक नया बीज मिला है, जिसके पौधों के आसमानी फूलों का चूरा बनाकर खाने से भूख खत्म होने का एहसास होता है। उनकी मौसी सिसिलिया ने एक मीठे पानी का झरना ढूंढ़ा है, पर वन विभाग के सिपाही उसे वहां तक नहीं जाने देते कि कहीं झरने का शीशे जैसा पानी गंदला न हो जाए, वे दुनिया के लोगों को घुमाने के लिए यहां लाना चाहते हैं”।
आइए अब कहानी की राजनीति पर बात करते हैं। मैं (देरीदा के) इस बात का मुरीद हूँ कि “हर लेखन में एक गुप्त राजनीति होती है”। साथ ही इसका भी कि “भाषा में स्थित अंतर्विरोधों को कोई लेखक अपने इरादों से पाट नहीं सकता है”। क्या बतौर समाज हम आदिवासियों को जिस तरह से देखते हैं या आदिवासी हमारी तरफ जिस तरह से देखते हैं, मुझे कहना चाहिए जितनी दूरी से देखते हैं हमारी भाषा उस दूरी को पाटने में हमारी मदद कर सकती है? यह बात सिर्फ मिथिलेश की ही कहानी पर नहीं बल्कि हाल के दिनों में आए एक ओवररेटेड उपन्यास गायब होता देश (लेखक: रणेन्द्र) पर भी लागू होती है। एक ओर जहां एक लेखक अपने लेखन में देश और देस के फर्क  को नहीं समझ पता है। (जिसपर कभी विस्तार से लिखुंगा) तो दूसरी ओर मिथिलेश हैं जो प्रेम के टूटने के मध्यम वर्गीय कारणों को आदिवासी कमिटमेंट पर हवी होने देते हैं। इस पैरा की शुरुआत में जब मैं “भाषा में स्थित अंतर्विरोधों को कोई लेखक अपने इरादों से पाट नहीं सकता है” के समर्थन में खड़ा हूँ तो दरअसल मैं लेखकों से इस सावधानी की उम्मीद करता हूँ कि वह अपने टेक्स्ट में भाषा के अंतर्विरोधों को पाटने की ईमानदार कोशिश करता दिखे। यहाँ लेखक उसे पाटने की कोशिश तो दूर, कमोबेश उसे ग्लैमराइज़ करता नज़र आ रहा है।

यह सच है कि कोई पाठक या आलोचक यह हैसियत नहीं रखता कि वह कहानीकार को यह डिक्टेट करे उसे कहानी को कैसे बरतना चाहिए था। लेकिन पाठक का यह अधिकार बनता है और लेखक कि यह ज़िम्मेदारी बनती है कि, वह कहानी को इस तरह से गढ़े कि कहानी की केन्द्रीय समस्या, जिस ओर लेखक लक्ष्य कर रहा है, स्पष्ट रहे। खास तौर से ऐसे विषयों में जिसमें बांकी माध्यमों में स्पष्ट रूप से कुछ भी कह पाना नामुमकिन के करीब है। यहाँ एमैन्यूल जो कहानी का केंद्रीय आदिवासी पात्र है, लिसा से प्रेम करता है, लिसा उससे संबंध तोड़ कर किन्हीं ब्रदर के साथ नर्स बनने शहर चली जाती है, एमैन्यूल के दिमाग में आत्महत्या का ख्याल आता है लेकिन वह अपनी समाजिकता की वजह से अपने उस ख्याल को रहने देता है। क्या लिसा सिर्फ नर्स बनने की उम्मीद पर ब्रदर के साथ चली गई? एमैन्यूल के प्रेम की जगह इस उम्मीद को प्रतिस्थापित करने की प्रक्रिया यानि पलाश की जगह गुलदावदी बोने की प्रक्रिया क्या रही? इसकी तलाश न तो लेखक और न ही कहानी का केंद्रीय पात्र एमैन्यूल करता है। यहीं, एक फादर हैं जो गाँव में स्कूल चलाते हैं और एमैन्यूल को पढ़ना चाहते हैं। वह ऐसा क्यों करना चाहते हैं (आदिवासी क्षेत्रों में चर्च और मिशनरियों को ध्यान में रखते हुए ) इसके पीछे उनका क्या मोह है? कहानी में इसका भी जिक्र नहीं है। ध्यान से पढ़ा जाय तो कहानी का केंद्रीय पात्र एक डर है, लेकिन वह कौन सा डर है उसके फैक्ट्स क्या हैं। इसे अगर इस तरह से कहूँ कि कहानी रूपी ब्रेड पर डर का मख्खन ज़रूर पूता हुआ है और हर पंक्ति में उस डर का स्वाद मौजूद है लेकिन इतना भर हो जाने के बावजूद डाइट पूरा नहीं हो जाता। वह डर क्या है, इसे डिकोड न तो नरेटर कर पा रहा है और न ही एमैन्यूल। किसी जगह पर इस्मत चुगतई ने खुद के अफसाना लिखने के बारे में लिखा है जिसका आशय कुछ इस तरह का है कि वह कहानियाँ इसलिए लिखती हैं कि इस विधा में कड़वी से कड़वी बात भी आसानी से कही जा सकती है। जो लेखों या अन्य माध्यमों में कहना मुश्किल है। फिर ऐसी कौन सी बात है जिसकी तरफ लेखक सिर्फ इशारा कर के निकाल जाना चाहता है। इस किस्से में पुराने किस्सों का भावनात्मक लिरिसिज़्म तो है, लेकिन नई परिस्थितियों में इस कहानी की जमीन पर उपजे द्वंद और उस द्वंद के कारणों की राजनीतिक, आर्थिक कारणों की पड़ताल नहीं की गई है। जो घट रहा है वह तो दर्ज़ किया गया है लेकिन वह क्यों घट रहा है, जिसके बारे में सिर्फ एक कलाकार, रचनाकार ही बता सकता है, उसके पीछे भागने जहमत लेखक ने नहीं उठाई है।