कविताएँ

Posted by हारिल On Tuesday, March 30, 2010 6 comments

(1)
लो
लिख मारी
मैंने एक और कविता हाँ,तुम्हारे ऊपर ....
तुम जो वर्ग की श्रेणी में मध्यम आते हो
तुम न शोषक हो न शोषित ...
फिर भी पता नहीं क्यों डरते हो थोड़े से अक्षरों से......उनकी अर्थवान एकता से ....
खैर, जबकि तुम
पहचान लिए गए हो
मेज के उस तरफ बैठे आदमी के एजेंट के रूप में
तो तुमसे क्या कहूँ ...
तब जबकि
तुम में से किसी ने अपने बच्चे के सवाल को डांट कर चुप करा दिया है .......
कोई अपनी बीबी को अपने साहब के पास बेच आया है......
कोई बहुत तत्परता से हमारी रिपोर्ट वहां दर्ज करा रहा है .....

फिर भी अगर संभावना हो तो एक प्रशन कर सकता हूँ ????

श्रीमान,आपने क्या किया उन नितिवाक्यों का जो आपको बचपन में उधार दिए गए थे ?
और, उन विचारों का जो आप अक्सर बलात्कार की खबर पढ़ कर प्रकट करते हैं ?
या फिर उसी उपदेश का, जो आपने सुबह 9 से 10 के बीच बस की भीड़-भाड़ में किसी स्कुल जाते बच्चे को दिया ?
उस समय आपकी चिंता भी बहुत जायज़
थी "आज काल बच्चे झूट बहुत बोलते हैं".
हलाकि मैं जनता हूँ
अपने हस्ताक्षर का इस्तेमाल करके
आपने अक्षरों की एकता से पैदा हुए खतरे को टाला है........
लेकिन साथी, वो कोई दूसरा तो नहीं होता
तुम ही होते हो ...
जो प्याज़ की मंहगाई पर -- सब्जी की दुकानों में
दूध में मिलावट पर --टेलीविजन चैनलों पर
और लोकतंत्र के ढांचे पर -- विश्वविद्यालयों में बोलते हुए पाए जाते हो .........

(2)


जब तुम सुनते

हो कीटनाशक पी , किसान ने की आत्महत्या

क्या तुम्हारे नाक के आस-पास सिकुडन पैदा होती है ?

क्या तुम महसूस करते हो अपने आस-पास हवा में अतिरिक्त निम्न-दबाव ....

तुम्हारे फेफड़े में उठता है कोई तूफान ?

क्या तुमने कभी सोचा है ...........

सेंसेक्स और सेक्स की इस दुनिया में,

लोग सल्फास का

सहारा क्यों लेते हैं ???


मीडिया का मोदी महोत्सव

Posted by हारिल On 1 comments

नरेन्द्र मोदी से रविवार 29 मार्च को दो बैठकों में 9 घंटे पूछताछ हुई. उनसे मैराथन बातचित कर यह पता लगाने का प्रयास किया गया होगा कि 2002 के दंगों, खास तौर से उस घटना, जिसमें गुलबर्ग सोसायटी में रहने वाले सांसद सहित 62 लोगों को जिंदा जला दिया गया था , में सरकार की क्या भूमिका रही थी . आरोप है कि अगर सरकार और मुख्यमंत्री चाहते तो ऐसा होने से रोका जा सकता था. इस मामले में दायर याचिका में कहा गया है कि 'बार-बार फ़ोन करने पर भी पुलिस अधिकारीयों द्वारा ध्यान नहीं दिया गया. स्वयं मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी भी समय पर मदद क्या भेजते, उलटे उन्होंने जाफरी को ही फटकार सुनाई थी.'

उपर्युक्त सारी बातें अख़बारों में लिखी जा चुकीं है, टेलिविज़न चैनलों पर कही जा चुकि है . बल्कि इससे एक कदम आगे, जैसा की इस समय का चरित्र है, पूरी मीडिया 'नरेन्द्र मोदी से हुई लम्बी पूछताछ का महोत्सव मना रही है.अभी हाल में केरल जाना हुआ था, वहीँ एक सार्वजिनक सभा में 'भारतीय महिला मुस्लिम आन्दोलन' की संस्थापक 'जाकिया सोमेन' दक्षिण एशिया में महिलाओं पर बढती हिंसा पर बोल रहीं थी. वह मुलत: गुजरात से हैं,और सामजिक कार्य करने का उनका कार्य क्षेत्र भी ज़्यादातर गुजरात ही रहा है इसलिए ऐसा हुआ होगा की बोलते हुए उन्हें पता न चला हो कि वह कैसे गुजरात के दंगों और उसमें सरकार कि भूमिका पर बोलने लगी . हलाकि यह विषयांतर था लेकिन किसी भी तरह की हिंसा का दंगों से ज्यादा बड़ा छदम रूप क्या हो सकता है कि मारने वाला नहीं जनता हो कि वह किस कारण से किसी को मार रहा है, या अगर जनता भी हो तो वह कारण ही निराधार हो जिसका पता मारने वाले को शायद कभी नहीं चलता और न ही मरने वाले को पता होता है कि उसने जिसे 'मारते' (हत्या करते) हुए उसने देखा है दरअसल वह उसे नहीं मार रहा....
बहरहाल, जाकिया ने कहा -- हम ने बचपन से ही देखा है , जब भी शहर में तनाव होता था, वे (मुसलमान) जो मुस्लिम इलाकों के सीमा पर रहते थे घर छोड़ कर बीच बस्ती में अपने रिश्तेदारों के यहाँ चले जाते, जब तनाव काम होता तो वापस आते, अपने जले हुए घरों को ठीक करते, जान बच जाने के लिए अल्लाह का शुक्रिया अदा करते--- इन घरों में जाकिया के नाना का घर भी शामिल होता था .
लेकिन बकौल जाकिया 2002 के दंगे अपनी संरचना में, अपनी कार्यशैली में, और अपने उद्देश्य में ( पाठक आश्चर्य कर सकते हैं लेकिन दंगों की भी अपनी संरचना होती है, वो एक तय शुदा कार्यक्रम से भड़काए जाते हैं एक उद्देश्य के साथ) अलग थे . जिसने जाकिया और उन जैसी कई 'जाकियाओं' की ज़िन्दगी के ताने बाने को, उसकी संरचना को, उसकी कार्यशैली को सबसे ज्यादा प्रभावित किया. 2002 तक गुजरात काफी तरक्की (आर्थिक विकास) कर चूका था, आहमदाबाद काफी तरक्की कर चूका था, इसलिए वहां के मुसलमान भी (माध्यम वर्गीय) आर्थिक रूप से समृद्ध हुए थे जो अब बस्तियों से निकल कर रिहायशी फ्लेटों में रहने लगे थे .
2002 के दंगों में दंगाइयों के पास पूरी लिस्ट थी कि कौन से अपार्टमेन्ट के किस फ्लेट में कोई मुसलमान रहता है ......क्या यह महज़ एक समाज का उग्र मन था या एक सुनियोजित आक्रामकता ? क्या सरकारी तंत्र को इसकी भनक पहले से नहीं रही होगी जबकि गुजरात एक तथाकथित संवेदन शील राज्य माना जाता है ...और अगर नहीं भी थी तो फिर सुचना-सुरक्षा पर इतना खर्च क्यूँ ? खबर न होने कि सजा किसको मिलेगी ? इसकी नैतिक ज़िम्मेदारी कौन लेगा ? क्या कोई भी व्यक्ति जिसको राज्य व्यवस्था की थोड़ी भी समझ हो वह यह मान सकता है की 2002 में जो कुछ हुआ उसके लिए सरकार जिम्मेदार नहीं है ?
खैर, जाकिया कह रही थी कि 2002 के दंगों में उसने दोस्त खोये,वे साथी जिनसे उठाना बैठना था एकदम से हिन्दू-या-मुसलमान हो गए और ऐसा ही अब भी है. लोड लगातार हिन्दू या मुसलमान होते चले जा रहे हैं..........
यह पूछे जाने पर की क्या ऐसा सिर्फ एक रात में अचानक से हो गया ? जाकिया ने जो बताया वह बहुत महत्वपूर्ण है, वह दंगों से पहले सरकार (अगर हम अब भी मने की वहाँ कोई ऐसी सरकार थी जो जनता के द्वारा जनता के लिए चुनी गई थी ) की भूमिका पर संदेह पैदा करती है और हमारे सामने उन 'टूल्स' को खोलती है जिसके माध्यम से राजनीतिक ताकतें सामान्य भावनाओं का इस्तमाल अपने हक में कर ले जाती है .....
जाकिया ने कहा कि वहां (गुजरात में) सम्प्रदायवादी ताकतें ( जाहिर है जाकिया का इशारा बी.जे.पी., आर.एस.एस., विश्वा हिन्दू परिषद्, आदि कि ओर है) ऐसे आनुष्ठानो, यज्ञों , का आयोजन करते हैं जिनका उद्देश्य होता है लोगों को सत्कर्म कि तरफ ले जाना ऐसे अनुष्ठानो में बहुत चालाकी से ऐसे मानवीय व्यवहारों को जो मुसलमानों में प्रचलित है अपयशकारी बताया जाता है. जाकिया ने तो उन किताबों का भी ज़िक्र किया जिनमें यहाँ तक लिखा होता है कि एक अच्छी माँ को चाहिए की वह अपने बच्चे को मुसलमानों से मिलने से रोके, या साइकिल का पंचर कभी भी किसी मुस्लिम कारीगर से नहीं बनवाना चाहिए इससे पाप होता है..........
क्या अगर ये सब कुछ एक लोकतान्त्रिक सरकार की उपस्थिति में हो रहा है तो उस सरकार की, सरकार की पुलिस की ज़िम्मेदारी तभी बनती है जब कोई ऍफ़ आई आर दर्ज हो ....या जब अमानवीयता अपने चरम पर हो (वैसे आरोप तो है की गुजरात में सरकार (!) ही अमानवीय थी/है ) ?
दरअसल, ये वो तरीकें हैं जिससे एक पुरे समाज के सोच को नियंत्रित कर लिया जाता है ताकि बाद में जो भी हो उसको जस्टिफाय किया जा सके ......
आप सोच रहे होंगे की इन जानी हुई बातों को दुहराने का क्या मतलब ? वो भी तब जब नरेन्द्र मोदी से लम्बी पूछताछ ( का नाटक, आस पास देखिये कहीं कोई चुनाव नहीं है और इस पूछताछ से किसी को कोई राजनीतिक नुकसान नहीं होने वाला) हो चुकि है लगता है की कुछ न कुछ हो रहेगा अब ...
मीडिया कभी इसे न्याय की जीत तो कभी मोदी का घमंड टूटना कह रहा है ....तो मुझे याद आ रहा है वो शायद बी. जे. पी. का शाशन काल था जब लालू यादव को चारा घोटाले के मामले में जेल जाना पड़ा था तब भी लगा था की कुछ न कुछ हो रहेगा क्या हुआ वो हम सब जानते है .......
फिर भी अगर नरेन्द्र मोदी पर वापस लौटें, एस आई टी पर वापस लौटें और गुजरात में मोदी के होने के मायनों को तलाशें, 2002 में सरकार (!) की भूमिका को परखें तो हम यही पाएंगे की 9 घंटे काफी नहीं है, ( शायद यह भावुकता हो पर मुझे लगता है कानून को इतना संवेदनशील तो होना ही चाहिए) 90 दिन का रिमांड चाहिए, सिर्फ एक गुलबर्ग सोसायटी में नहीं मोदी ने जहर पुरे गुजरात में फैलाया है . मीडिया में जो मोदी महोत्सव (रावण वध कि तरह ही सही ) चल रहा है वह यही समझाता है कि मोदी सबसे ज्यादा शक्तिशाली आदमी है/था इस देश के संविधान और कानून से भी ज्यादा शक्तिशाली और इस शक्तिशाली आदमी जो (दुर्भाग्य से) एक राज्य का मुख्यमंत्री भी है को पहली बार कानून के आगे झुकना पड़ा है . पहली बार किसी मुख्यमंत्री को दंगे जैसे संवेदनशील मामले में इस तरह से पूछताछ के लिए बुलाया गया ........इसे एक सौभाग्य कि तरह पूरा मीडिया प्रचारित कर रहा है ......ऐसा अगर हुआ तो सिर्फ इसलिए कि भारत के संवैधानिक इतिहास में पहली बार ऐसा नरभक्षी मुख्यमंत्री हुआ है, पहली बार किसी राज्य के मुख्यमंत्री की भूमिका इतनी संदिग्ध है और उससे इस्तीफे की मांग करने वाला कोई विपक्ष नहीं है .....
कोई केंद्र सरकार वहां राष्ट्रपति शासन लगाने की बात नहीं कर रहा ? क्या सिर्फ भौतिक परिस्थितोयों का बिगड़ना ही राष्ट्रपति शासन की पहली शर्त होनी चाहिए?
और वे जो इस बात को भुना रहे हैं की मोदी ने कानून का सम्मान किया उन्हें यह समझ दिया जाना चाहिए की मोदी के पास यही एक मात्र उपाय था इसके अलावा वो कर भी क्या सकते थे......


फ़िर से ..........

Posted by हारिल On Wednesday, November 11, 2009 1 comments

27 दिसम्बर 2008 के बाद आज फ़िर से इसी ब्लॉग पर एक नई पोस्ट .....ऐसा अकसर होता है कि आप ने सोच लिया हो की आप कोई काम नही करेंगे लेकिन फ़िर आप करते हैं .....क्या यहीं पर आदमी कमज़ोर होता है ..या फ़िर व्यक्ति वहां कमज़ोर होता है जब वह किसी खास चीज़ से दुरी बनाने की सोच लेता है ....

खैर जो भी हो ...

इस लगभग 1 साल (300 दिन ) में काफी परिवर्तन हुए ...अव्वल तो मुझे बी.कॉम की डिग्री मिल गई ...दूसरा मैं जनसंचार का छात्र हो गया महात्मा गाँधी अन्तराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय में जिसके कारण जमशेदपुर छुटा और अब गाँधी-विनोवा के शहर वर्धा में रमने की कोशिश कर रहा हूँ .......जमशेदपुर से निकल भागने की खुशी का वर्णन मैं आपसे नही कर सकता और यह खुशी कैसे और कब मन में एक निर्वात पैदा करने लगी यह भी मैं समझने में असमर्थ हूँ ......वर्धा में रहते हुए यहाँ की हवा को सांसों में भरते हुए मैं यह महसूस करने लगा हूँ कि मेरी हर एक छूटती साँस में जमशेदपुर कि ही हवा है और हो भी क्यूँ न ?? तमाम विसंगतियों के वावजूद यही वो शहर है जिसने मुझे आवारगी की ट्यूशन दी । यही वो शहर है जहाँ मैंने सुबह की शुरुआत अजान से करते हुए मैंने यह जाना की भाषा और संस्कार किसी धर्म की जागीरदारी में नही आते ...

मेरे ख्याल से अब और अपनी नास्टेल्जिया का और ज्यदा बोझ डालना उचित नहीं होगा....हुआ यह की कुछ दिन पहले हमारे विश्वविद्यालय में फ़िल्म कर 'जोशी जोसेफ' आए थे उन्होंने मणिपुर पर काफी फिल्में बनाई है और अपनी फिल्मों के निर्माण के पीछे के उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए उन्होंने 'उदय प्रकाश' की कविता की पंक्तियाँ कही थी कि
" आदमी मरने के बाद कुछ नहीं बोलता
आदमी मरने के बाद कुछ नहीं सोचता
कुछ नहीं सोचने और
कुछ नहीं करने से
आदमी मर जाता है "
और तब से मन कुछ करने और जिंदा रहने के लिए बेचैन है ....

बोलने बतियाने को काफी कुछ है और कुछ भी नहीं ....फिलहाल मंगलेश डबराल कि कविता के साथ छोडे जा रहा हूँ ........
परिभाषा की कविता / मंगलेश डबराल

परिभाषा का अर्थ है चीज़ों के अनावश्यक विस्तार में न जाकर उन्हें
एक या दो पंक्तियों में सीमित कर देना.
परिभाषाओं के कारण ही
यह संभव हुआ कि हम हाथी जैसे जानवर या ग़रीबी जैसी बड़ी घटना
को दिमाग़ के छोटे-छोटे ख़ानों में हूबहू रख सकते हैं.
स्कूली बच्चे
इसी कारण दुनिया के समुद्रों को पहचानते हैं और रसायनिक यौगिकों
के लंबे-लंबे नाम पूछने पर तुरंत बता देते हैं.


परिभाषाओं की एक विशेषता यह है कि वे परिभाषित की जाने वाली
चीज़ों से पहले ही बन गयी थीं.
अत्याचार से पहले अत्याचार की
परिभाषा आयी. भूख से पहले भूख की परिभाषा जन्म ले चुकी थी.

कुछ लोगॊं ने जब भीख देने के बारे में तय किया तो उसके बाद
भिखारी प्रकट हुए.

परिभाषाएँ एक विकल्प की तरह हमारे पास रहती हैं और जीवन को
आसान बनाती चलती हैं.
मसलन मनुष्य या बादल की परिभाषाएँ
याद हों तो मनुष्य को देखने की बहुत ज़रूरत नहीं रहती और आसमान
की ओर आँख उठाये बिना काम चल जाता है.
संकट और पतन की
परिभाषाएँ भी इसीलिए बनायी गयीं.


जब हम किसी विपत्ति का वर्णन करते हैं या यह बतलाना चाहते हैं
कि चीज़ें किस हालत में हैं तो कहा जाता है कि शब्दों का अपव्यय
है. एक आदमी छड़ी से मेज़ बजाकर कहता है : बंद करो यह पुराण
बताओ परिभाषा.
(रचनाकाल : 1990)

फ़िर से ....


हजारीबाग--फाइल बंद

Posted by हारिल On Saturday, December 27, 2008 6 comments

मैंने फैसला किया था कि हजारीबाग की घटना के बारे में सारी बातें बताऊंगा, लेकिन पहले मैं समझ लूँ की वहां आखिर हुआ किया? और इस प्रयास इतने दिन लग गये...... खैर अब मैं कुछ-कुछ समझ पाया हूँ की वहां जो कुछ भी हुआ हो या जो कुछ भी हुआ वह साहित्यिक तो बिलकुल नहीं था समाजिक भी नहीं था, और घटना को फिर से दुहरना उसे दुबारा पुनर्जीवित करना एक संतोष जनक बेबकूफी से ज्यादा और कुछ भी नहीं होगा। हाँ गोष्टी से कुछ बातें और सवाल जो उठ कर आये उनपर अगर विचार किया जाय तो कुछ बात बन सकती है. मसलन "वर्तमान समय में एक लेखक की क्या भूमिका है" इस समंध में जो भी चर्चा वहां हुई वह अवश्य ही बोधिक स्तर पर काफी प्रभावशाली थी लेकिन मुझ जैसे कम समझ दार लोगों के लिए यही सवाल आज भी बडा और अहम है की एक लेखक आदमी या मानव पहले है या फिर लेखक. और अगर वह आदमी पहले है तो पहले उसे आदमी होने का कर्तव्य निभाना चाहिए या लेखक होने का. दूसरा सवाल जो मेरे मन में आ रहा है वह है कि क्या लेखक वैचारिक स्तर पर और व्यक्तिगत स्तर पर दो अलग-अलग जीवन जी सकता है. शायद यही से यह बात भी उठ कर आती है कि क्या एक लेखक को सामाजिक बुराइयों के खिलाफ डंडा लेकर खडा हो जाना चाहिए ?? या लेखक सिर्फ इस लिए लेखक होता है कि वह तमाम सामजिक बुराइयों को पंचसितारा होटल के कमरे से शराब कि चुस्कियों के साथ देखे और फिर उसे बडे ही कुरूप शब्दावरण में लपेट कर बाहर समाज को दे दे, ताकि समाज उसका रोना रोते रहे.....और अगर इतना करना संभव न हो कि लेखक डंडा लेकर चल निकले तो भी मेरे विचार से विचारों और कार्यों में तो समानता होनी ही चाहिएमेरी समझ में साहित्य शरू से ही भोग और क्रांति दोनों का ही माध्यम रहा है एक और जहाँ दरबारी कवियों कि एक लम्बी फेहरिस्त है वही दूसरी ओर 'कबीर' जैसा कवि तमाम सामाजिक पाखंड कि धजिय्याँ उडाता रहा है मतलब इससे है कि हम किसे आदर्श के रूप में लेतें है साथ ही हम कैसा इतिहास बनान चाहते हैं.सवालों कि आहमियत आज के समय में और भी ज्यादा बढ़ जाती है क्योकि कि आज हम चौतरफा परेशानियों से घिरे हैं, जितनी ज्यादा परेशानियाँ हैं उतने ही विकल्प भी हमारे सामने खुले हुए हैं और हम चुनाव कि समस्या से अनूठे रूप में जकडे हुए है वह इस लिए कि हम सोच के स्तर पर और कार्य के स्तर पर स्थिर नहीं है दोनों के बिच का बडा अंतर हमें उस समस्या कि और ले जा रहा है.ज़रूरत है कि हम अपने आपको स्थिर कर समय को अस्तीर करने की सोचें और इस्स्में अंतः हमारा बुद्धिजीवी वर्ग जो जीवन जीवी भी हो ही सहयोग कर सकता है .
चलते-चलते अज्ञेय की कविता उड़ चल हारिल जो आज "कविता कोष " पर तफरी के दौरान मिली
उड़ चल हारिल लिये हाथ में
यही अकेला ओछा तिनका
उषा जाग उठी प्राची में
कैसी बाट, भरोसा किन का!


शक्ति रहे तेरे हाथों में
छूट न जाय यह चाह सृजन की
शक्ति रहे तेरे हाथों में
रुक न जाय यह गति जीवन की!


ऊपर ऊपर ऊपर ऊपर
बढ़ा चीर चल दिग्मण्डल
अनथक पंखों की चोटों से
नभ में एक मचा दे हलचल!


तिनका तेरे हाथों में है
अमर एक रचना का साधन
तिनका तेरे पंजे में है
विधना के प्राणों का स्पंदन!


काँप न यद्यपि दसों दिशा में
तुझे शून्य नभ घेर रहा है
रुक न यद्यपि उपहास जगत का
तुझको पथ से हेर रहा है!


तू मिट्टी था, किन्तु आज
मिट्टी को तूने बाँध लिया है
तू था सृष्टि किन्तु सृष्टा का
गुर तूने पहचान लिया है!


मिट्टी निश्चय है यथार्थ पर
क्या जीवन केवल मिट्टी है?
तू मिट्टी, पर मिट्टी से
उठने की इच्छा किसने दी है?


आज उसी ऊर्ध्वंग ज्वाल का
तू है दुर्निवार हरकारा
दृढ़ ध्वज दण्ड बना यह तिनका
सूने पथ का एक सहारा!


मिट्टी से जो छीन लिया है
वह तज देना धर्म नहीं है
जीवन साधन की अवहेला
कर्मवीर का कर्म नहीं है!


तिनका पथ की धूल स्वयं तू
है अनंत की पावन धूली
किन्तु आज तूने नभ पथ में
क्षण में बद्ध अमरता छू ली!


ऊषा जाग उठी प्राची में
आवाहन यह नूतन दिन का
उड़ चल हारिल लिये हाथ में
एक अकेला पावन तिनका


"हजारीबाग-1__नामवर का आना जाना

Posted by हारिल On Sunday, December 21, 2008 8 comments

अभी कुछ देर पहले हजारीबाग से लौटा हूँ। परसों शाम के वक़्त खबर मिली की 'नामवर सिंह' वहां आने वाले हैं, प्रगतिशील लेखक संघ के द्वितीय राज्य स्तरीय सम्मलेन में. वैसे मैं खुद किसी संघ से जुडा हुआ नहीं हूँ लेकिन किसी न किसी कारण से प्रगतिशील लेखक संघ के कार्यक्रमों में श्रोता के रूप में पिछले 3 वर्षों से शामिल होता रहा हूँ, ओछी राजनीति को इसका हिस्सा मानते हुए भी कुछ अच्छा सुन लेने के लालच मुझे वहां खीच ले जाती है क्यों की शहर मैं कोई और संघ या गुट साहित्यिक माहौल का निर्माण करता नज़र आता, बहरहाल मैं 'नामवर सिंह' को सुनने जमशेदपुर से हजारीबाग (252 km) गया कार्यक्रम २ बजे शुरू होने वाला था और शुरू हुआ 3:30 में, हलाकि की ये कोई बड़ी बात नहीं थी और भी देरी हो सकती थी अगर आधे घंटे बाद 'नामवर जी' को धनबाद जा कर दिल्ली के लिए गाड़ी न पकड़नी होती. यह मेरे लिए बहुत दुखद बात थी क्योंकि मेने सुन रखा था की नामवर जी आधे घंटे के बाद बोलना शुरू करते हैं और उनके लेखों से मुझे लगता था कि उनको सुनना सचमुच में रोचक होगा खैर मैं सोचा कि नामवर जी जैसा विद्वान तो आधे घंटे में ही हमारी मानसिक खुराक पूरी कर देगा. लेकिन जब 'डॉ. खगेन्द्र ठाकुर' ने हमे यह बतया की माइक की व्यवस्था नहीं हो पाई है तो मेरे लिए वह कुढ़ कर रोने वाली स्थिति थी .......'नामवर जी' को "वर्तमान समय में साहित्यकारों की भूमिका" पर बोलना था वो बोले लेकिन बहुत कम बोले. उनके कहने को टिक -टीक आक्स बनता अगर उनकी आवाज़ हम तक टीक-टीक पहुँचती, जितनी भी बात हम तक पहुंची उससे जो सर निकलता है वह यह है की अगर भारत इस समय में पाकिस्तान पर हमला करता है तो वह देश में दंगों का कारण बन सकता है, विश्वा का सबसे बाधा आतंकवादी अमेरिका है और हमे अभी समय बहुत ख़राब है और हमें बहुत सयम से काम लेना चाहिए। लेकिन जब उनसे ये पूछा गया की ये स्याम कितने समय के लिए होगा तो वो जाने कौन सा शेर सुना कर चल निकले, तना तो तय था की उन्होंने उस सवाल का जबाब नही दिया जो उनके सामने रखे गये थे .

नामवर जी को सुनने की मेरी इच्छा इच्छा के रूप में ही रह गई पता नही क्यों मुझे लगता है वो कम के साथ-साथ संतुलित भी बोले शायद यही संतुलन हमारे समाज के लिए, साहित्य के लिए खतरनाक होता जा रहा है अब समय आ गया है जब हमे असंतुलित बातें करनी होगी और सच को अपनी तरफ या ख़ुद को सच्चाई की तरफ झुकाना होगा । बातें बहुत सारी है राजनीती में साहित्य और साहित्य में राजनीती की जिन्हें मैं ने पिछले २ दिनों में देखा और भोगा और यहाँ तक की सांसों में जिया है सारी बातें लिखूंगा और कोशिश करूँगा की उनको समझ भी सकूँ ।

फिलहाल फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की एक ग़ज़ल जो इस वक्त मेरे दिल और दिमाग पर नशे की तरह तारी है और बहुत आराम पंहुचा रही है ।

अब कहाँ रस्म घर लुटाने की
बर्कतें थी शराबख़ाने की
कौन है जिससे गुफ़्तुगु कीजे
जान देने की दिल लगाने की
बात छेड़ी तो उठ गई महफ़िल
उनसे जो बात थी बताने की
साज़ उठाया तो थम गया ग़म-ए-दिल
रह गई आरज़ू सुनाने की
चाँद फिर आज भी नहीं निकला
कितनी हसरत थी उनके आने की
http://www.kavitakosh.org
(से साभार )


नए ब्लॉग का जस्टिफिकेशन!!!!

Posted by हारिल On Monday, December 15, 2008 1 comments

आज फ़िर अपने एक नए ब्लॉग पर पहला पोस्ट । जहाँ तक मुझे याद है यह मेरा छटा ब्लॉग है, जिन छह में से तीन पर तो कभी कोई पोस्ट डाली ही नही गई, एक ब्लॉग जो मेरे द्वारा चलाया जाता है लेकिन वो मेरा निजी नही है. एक, जिसपर मैं पिछले तीन महीने से आपना स्थाई ब्लॉग होने का दंभ भर रहा था तथा जिस पर हर हफ्ते एक पोस्ट डालने की कोशिश करता था एवं जिसमें पिछले दो महीने से असफल रहा था ।

मुझे यह बात बहुत परेशान कर रही है कि आख़िर ऐसा क्या है जो मुझे हर बार एक नया ब्लॉग बनने को विवश करता है , लेकिन मुझे पता है कि जो लोग इस पोस्ट को पड़ेंगे उनके लिए इससे ज़्यादा चिंता का विषय यह होगा कि मेरे पहले के ब्लॉग का क्या हुआ ?मैं शायद इस सवाल का जबाब दे पाऊं , लेकिन मुझे पता है मेरा जबाब भी मेरी ख़ुद की गलतियों को जस्टिफाई करने से ज़्यादा कुछ भी नही होगा । वैसे मेरे ख्याल से हम जो कुछ भी करते हैं वो अपने आप को जस्टिफाई करने के लिए ही करते हैं , और जब यही ख़ुद को जस्टिफाई करने कि इच्छा ख़त्म हो जाती है तो इन्सान काम करना बंद कर देता है , हाँ ये हो सकता है कि हर आदमी अपने आप को अलग-अलग छेत्र में जस्टिफाई करना चाहे, और हर आदमी के ख़ुद को जस्टिफाई करने का तरीका अलग हो, बहरहाल मेरा ख़ुद को जस्टिफाई करने का माद्यम लिखना है और जब मुझे लगने लगता है कि ऐसा कोई नही जिसके सामने मैं ख़ुद को जस्टिफाई करूँ तो मैं लिखना बंद कर देता हूँ । और जब लिखना बंद कर देता हूँ तो ब्लॉग पर मेरे पास ब्लॉग पर पोस्ट करने के लिए कुछ भी नही रह जाता, जब पोस्ट करने के लिए कोई सामग्री नही हो तो ब्लॉग के 'डेशबोर्ड ' तक जाने कि ज़रूरत भी नही रह जाती , जब ब्लॉग का 'डेशबोर्ड ' नही खुलता तो मेरे जैसा बंद जिसे ख़ुद का फ़ोन नम्बर याद करने में हफ्ते भर का समय लगता हो अपने खाते का पासवर्ड भूल जाता और फिर मुझ जैसों को यह महसूस होता है कि ख़ुद को जस्टिफाई करना होगा तो वह फ़िर से एक नया ब्लॉग बनता है ।

अब मैं आपको उन कारणों कि तरफ ले जाता हूँ जिन्होंने मुझे ख़ुद को जस्टिफाई करने कि ज़रूरत से मुक्त किया , मुझे लगता है एक व्यक्ति सबसे पहले अपने अपने 'जन्म देने वाले' फ़िर 'जिनके सहारों पे वो बढता है 'उनके , और फ़िर उस 'समाज' जो उनसब के होने का कारण होता है के प्रति जिम्मेदार होता है हो सकता है कि मैंने जो सीढ़ी बनाई है वो कुछ के लिए उलटी हो फ़िर भी इससे मेरी बातों को फर्क नही पड़ेगा. जहाँ तक पहली दो जिम्मेदारियों का सवाल है तो वो घर से दूर होने के बाद भी दूरसंचार कि सुविधाओं के कारण लगभग हर रोज़ पुरा करता हूँ हलाकि कि अभी ये जिम्मेदारी से ज़्यादा ख़ुद कि तीमारदारी ही होती है ।
अब उस जिम्मेदारी कि ओर जो 'समाज' के प्रति मेरी बनती है और जिसे उसका पुरा हक है कि वो मुझसे जस्टिफिकेशन मांगे । मैंने ने पिछले दो महीने से अपने आप को जस्टिफाई नही किया क्यों कि मुझे नही लगा कि मुझे करना चाहिए .......

आख़िर कोई क्यों आपने आप को जस्टिफाई करे भी उसके सामने जो ख़ुद अपने होने के संकट से जूझ और हो, मुझे बचपन से पढाया जाता रहा कि 'सरकारें समाज के हित के लिए बनाई जाती है' , जब से मिडिया के बारे मैं सुना तब से यही जाना की मिडिया लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ होता है, पुलिस न्याय कि रक्छक होती है, बाज़ार के बारे में मैंने पढा है की वर्तमान बाज़ार हमे चुनने की सुविधा देता है, अपनी स्कृति के बारे में जाना था कि अनेकता में एकता इसकी पहचान है...... लेकिन क्या पिछले दो महीने में जो हुआ उसका जस्टिफिकेशन हमारी सरकार, हमारी मिडिया, हमारा बाज़ार, और हमारे संस्कृति के दलाल देंगे ??? क्या हमारी सरकार हमे यह बताएगी की क्यों हम अपने ही देश में 'बिहारी' , 'गुजरती', और 'मुम्बैया' हैं, क्या सरकार के पास इस बात का जबाब है कि क्यों हमें इस बात कि गारंटी नहीं है कि टुकडों में जीने के बाद हमारी पूरी लाश को मिटटी नसीब हो. क्या हमारा मिडिया ये बतायेगा कि किस 'राम' ने या किस 'पैगम्बर' ने 'हिन्दू' या 'इस्लामिक' आतंखवाद कि स्थापना कि.....हम कब तक ये उम्मीद रखें की 'इस ब्रेक के बाद' इसके (मिडिया) सरोकार भारतीय हो जायेंगे......आखिर कब हमारा मिडिया हमे sms के जाल से आजाद करा, हमे हमारा हक दिलाने की बात करेगा ??? कब हमारी पुलिस हिन्दू या मुसलमान को नहीं पकड़ कर एक आतंखवादी को पकडेगी.....कब पुलिस नेताओं की नहीं जनता की हिफाज़त करेगी और अगर वो ऐसा नहीं कर सकती है तो इसका जस्टिफिकेशन क्या है ??आखिर क्यों हर बार 'राम' की हिफाज़त का काम किसी न किसी रावण को सोंपा जाता है....कब तक उनकी मर्यादा को सिर्फ एक ईमारत तक में सिमित कर के रखा जायेगा आखिर कब तक ????