अभी कुछ देर पहले हजारीबाग से लौटा हूँ। परसों शाम के वक़्त खबर मिली की 'नामवर सिंह' वहां आने वाले हैं, प्रगतिशील लेखक संघ के द्वितीय राज्य स्तरीय सम्मलेन में. वैसे मैं खुद किसी संघ से जुडा हुआ नहीं हूँ लेकिन किसी न किसी कारण से प्रगतिशील लेखक संघ के कार्यक्रमों में श्रोता के रूप में पिछले 3 वर्षों से शामिल होता रहा हूँ, ओछी राजनीति को इसका हिस्सा मानते हुए भी कुछ अच्छा सुन लेने के लालच मुझे वहां खीच ले जाती है क्यों की शहर मैं कोई और संघ या गुट साहित्यिक माहौल का निर्माण करता नज़र आता, बहरहाल मैं 'नामवर सिंह' को सुनने जमशेदपुर से हजारीबाग (252 km) गया कार्यक्रम २ बजे शुरू होने वाला था और शुरू हुआ 3:30 में, हलाकि की ये कोई बड़ी बात नहीं थी और भी देरी हो सकती थी अगर आधे घंटे बाद 'नामवर जी' को धनबाद जा कर दिल्ली के लिए गाड़ी न पकड़नी होती. यह मेरे लिए बहुत दुखद बात थी क्योंकि मेने सुन रखा था की नामवर जी आधे घंटे के बाद बोलना शुरू करते हैं और उनके लेखों से मुझे लगता था कि उनको सुनना सचमुच में रोचक होगा खैर मैं सोचा कि नामवर जी जैसा विद्वान तो आधे घंटे में ही हमारी मानसिक खुराक पूरी कर देगा. लेकिन जब 'डॉ. खगेन्द्र ठाकुर' ने हमे यह बतया की माइक की व्यवस्था नहीं हो पाई है तो मेरे लिए वह कुढ़ कर रोने वाली स्थिति थी .......'नामवर जी' को "वर्तमान समय में साहित्यकारों की भूमिका" पर बोलना था वो बोले लेकिन बहुत कम बोले. उनके कहने को टिक -टीक आक्स बनता अगर उनकी आवाज़ हम तक टीक-टीक पहुँचती, जितनी भी बात हम तक पहुंची उससे जो सर निकलता है वह यह है की अगर भारत इस समय में पाकिस्तान पर हमला करता है तो वह देश में दंगों का कारण बन सकता है, विश्वा का सबसे बाधा आतंकवादी अमेरिका है और हमे अभी समय बहुत ख़राब है और हमें बहुत सयम से काम लेना चाहिए। लेकिन जब उनसे ये पूछा गया की ये स्याम कितने समय के लिए होगा तो वो जाने कौन सा शेर सुना कर चल निकले, तना तो तय था की उन्होंने उस सवाल का जबाब नही दिया जो उनके सामने रखे गये थे .
नामवर जी को सुनने की मेरी इच्छा इच्छा के रूप में ही रह गई पता नही क्यों मुझे लगता है वो कम के साथ-साथ संतुलित भी बोले शायद यही संतुलन हमारे समाज के लिए, साहित्य के लिए खतरनाक होता जा रहा है अब समय आ गया है जब हमे असंतुलित बातें करनी होगी और सच को अपनी तरफ या ख़ुद को सच्चाई की तरफ झुकाना होगा । बातें बहुत सारी है राजनीती में साहित्य और साहित्य में राजनीती की जिन्हें मैं ने पिछले २ दिनों में देखा और भोगा और यहाँ तक की सांसों में जिया है सारी बातें लिखूंगा और कोशिश करूँगा की उनको समझ भी सकूँ ।
फिलहाल फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की एक ग़ज़ल जो इस वक्त मेरे दिल और दिमाग पर नशे की तरह तारी है और बहुत आराम पंहुचा रही है ।
अब कहाँ रस्म घर लुटाने की
बर्कतें थी शराबख़ाने की
कौन है जिससे गुफ़्तुगु कीजे
जान देने की दिल लगाने की
बात छेड़ी तो उठ गई महफ़िल
उनसे जो बात थी बताने की
साज़ उठाया तो थम गया ग़म-ए-दिल
रह गई आरज़ू सुनाने की
चाँद फिर आज भी नहीं निकला
कितनी हसरत थी उनके आने की
http://www.kavitakosh.org
(से साभार )
सुधांशु संतुलन मनुष्यता के इतिहास में सबसे खतरनाक स्थितिओं मे से है??
कोई भी समाज ,व्यक्ति... सृजन तभी कर सकता है...जब उसमे कुछ
असंतुलन हो उसी को भरने की कवायेद ही सृजनात्मकता की शुरुआत है??
लेकिन मनुष्य स्वाभाव से ढोंगी प्राणी रहा है सो उसने अपनी आतंरिक असंतुलन के बरक्स
एक छद्म बाह्य संतुलन का परकोटा ओढ़ लेता है?/
और बुढे लोगों पे ये ढोंग का मुल्लेम्मा इतना चिपक चूका है??
की इसे हटाना कठिन है...
तो हमें ही आगे बढ़ के इस संतुलन के झूठे आवरण ko नोच फेंकना होगा....
क्यूंकि संतुलन साहित्य और समाज दोनों मे सडन पैदा कर देती है....
--क्यूंकि संतुलन से विचार पैदा नहीं होते.....