27 दिसम्बर 2008 के बाद आज फ़िर से इसी ब्लॉग पर एक नई पोस्ट .....ऐसा अकसर होता है कि आप ने सोच लिया हो की आप कोई काम नही करेंगे लेकिन फ़िर आप करते हैं .....क्या यहीं पर आदमी कमज़ोर होता है ..या फ़िर व्यक्ति वहां कमज़ोर होता है जब वह किसी खास चीज़ से दुरी बनाने की सोच लेता है ....
खैर जो भी हो ...
इस लगभग 1 साल (300 दिन ) में काफी परिवर्तन हुए ...अव्वल तो मुझे बी.कॉम की डिग्री मिल गई ...दूसरा मैं जनसंचार का छात्र हो गया महात्मा गाँधी अन्तराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय में जिसके कारण जमशेदपुर छुटा और अब गाँधी-विनोवा के शहर वर्धा में रमने की कोशिश कर रहा हूँ .......जमशेदपुर से निकल भागने की खुशी का वर्णन मैं आपसे नही कर सकता और यह खुशी कैसे और कब मन में एक निर्वात पैदा करने लगी यह भी मैं समझने में असमर्थ हूँ ......वर्धा में रहते हुए यहाँ की हवा को सांसों में भरते हुए मैं यह महसूस करने लगा हूँ कि मेरी हर एक छूटती साँस में जमशेदपुर कि ही हवा है और हो भी क्यूँ न ?? तमाम विसंगतियों के वावजूद यही वो शहर है जिसने मुझे आवारगी की ट्यूशन दी । यही वो शहर है जहाँ मैंने सुबह की शुरुआत अजान से करते हुए मैंने यह जाना की भाषा और संस्कार किसी धर्म की जागीरदारी में नही आते ...
मेरे ख्याल से अब और अपनी नास्टेल्जिया का और ज्यदा बोझ डालना उचित नहीं होगा....हुआ यह की कुछ दिन पहले हमारे विश्वविद्यालय में फ़िल्म कर 'जोशी जोसेफ' आए थे उन्होंने मणिपुर पर काफी फिल्में बनाई है और अपनी फिल्मों के निर्माण के पीछे के उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए उन्होंने 'उदय प्रकाश' की कविता की पंक्तियाँ कही थी कि
" आदमी मरने के बाद कुछ नहीं बोलता
आदमी मरने के बाद कुछ नहीं सोचता
कुछ नहीं सोचने और
कुछ नहीं करने से
आदमी मर जाता है "
और तब से मन कुछ करने और जिंदा रहने के लिए बेचैन है ....
बोलने बतियाने को काफी कुछ है और कुछ भी नहीं ....फिलहाल मंगलेश डबराल कि कविता के साथ छोडे जा रहा हूँ ........
परिभाषा की कविता / मंगलेश डबराल
परिभाषा का अर्थ है चीज़ों के अनावश्यक विस्तार में न जाकर उन्हें
एक या दो पंक्तियों में सीमित कर देना.
परिभाषाओं के कारण ही
यह संभव हुआ कि हम हाथी जैसे जानवर या ग़रीबी जैसी बड़ी घटना
को दिमाग़ के छोटे-छोटे ख़ानों में हूबहू रख सकते हैं.
स्कूली बच्चे
इसी कारण दुनिया के समुद्रों को पहचानते हैं और रसायनिक यौगिकों
के लंबे-लंबे नाम पूछने पर तुरंत बता देते हैं.
परिभाषाओं की एक विशेषता यह है कि वे परिभाषित की जाने वाली
चीज़ों से पहले ही बन गयी थीं.
अत्याचार से पहले अत्याचार की
परिभाषा आयी. भूख से पहले भूख की परिभाषा जन्म ले चुकी थी.
कुछ लोगॊं ने जब भीख देने के बारे में तय किया तो उसके बाद
भिखारी प्रकट हुए.
परिभाषाएँ एक विकल्प की तरह हमारे पास रहती हैं और जीवन को
आसान बनाती चलती हैं.
मसलन मनुष्य या बादल की परिभाषाएँ
याद हों तो मनुष्य को देखने की बहुत ज़रूरत नहीं रहती और आसमान
की ओर आँख उठाये बिना काम चल जाता है.
संकट और पतन की
परिभाषाएँ भी इसीलिए बनायी गयीं.
जब हम किसी विपत्ति का वर्णन करते हैं या यह बतलाना चाहते हैं
कि चीज़ें किस हालत में हैं तो कहा जाता है कि शब्दों का अपव्यय
है. एक आदमी छड़ी से मेज़ बजाकर कहता है : बंद करो यह पुराण
बताओ परिभाषा.
(रचनाकाल : 1990)
फ़िर से ....
सागर बहुत अच्छे, वेल डन! कीप इट अप... दोनों सन्दर्भ मस्त है... यही कविता...