- गुंजेश
यदि मैं आपको अभी बता दूं कि आगे के पूरे लेख में आप एक किताब के बारे में पढ़ेंगे. एक ऐसी किताब जो 1857 की स्वतंत्रता संग्राम की पूर्व पीठिका का औपन्यासिक दस्तावेज होने का दावा करती है. स्वतंत्रता संग्राम की पूर्व पीठिका अर्थात ‘संताल हूल’. जिसमें पहली बार संतालों ने यह सवाल उठाया था कि यह जमीन ईश्वर की, हम ईश्वर के बेटे फिर बीच में यह सरकार कहां से आ गयी. ठीक है कि आप जानते हैं कि ‘यह आंदोलन 30 जून 1855 से सितंबर 1856 तक चला’ यह भी कि ‘इसका नेतृत्व सिद्धू एवं कान्हू ने किया था’ और यह भी कि ‘दो बहने फूलो और झानो हूल का निमंत्रण बांटा करती थी’. इन सब जानकारियों के बावजूद आप यह नहीं जानते होंगे कि भुंइयां राजा कौन थे और पश्चिम से आनेवाले शत्रुओं से रक्षा करनेवाले भुंइयां राजा और इनकी प्रजा ने धरती से ‘बिलकुल अलग थलग’ और ‘स्वतंत्र संताल ’ होने की मांग क्यों की थी.
तो भी गुगल सर्च के जमाने में महज 150 वर्षो से कुछ ज्यादा पुरानी घटना, भले ही वह कितनी ही ऐतिहासिक क्यों न हो, के बारे में जानने के लिए आप क्यों लगभग 90 वर्ष पुराने उपन्यास को पढ़ें. वह भी एक ऐसा उपन्यास जिसे एक तत्कालीन अंगरेज शासक ने लिखा हो. यहां एक बात समझ लेने की जरूरत होगी कि अभी तक कुछ इतिहास कारों को छोड़ कर ज्यादातर इतिहास लेखन किसी न किसी राजनीतिक, धार्मिक दबाव में ही हुआ है और इस पर भी आदिवासियों या अन्य दमित समुदायों के बारे में लिखा गया लोकप्रिय (पॉपुलर) इतिहास तो ‘शिकारियों का शिकार पर लिखा गया इतिहास’ ही है. लोकप्रिय इतिहास के बारे में एक और बात यहां समझ लेने की जरूरत है कि यह हमें घटनाओं के घटने की जानकारी तो देती है लेकिन उन घटनाओं के घटने की प्रक्रिया क्या रही वो कौन से सामाजिक आर्थिक द्वंद्व रहे जो घटना के होने के जिम्मेदार रहे यह जानकारी हमें उस समय के जिम्मेदार साहित्य से ही मिलती है. अंगरेज कवि शैले ने अपने लेख ‘कविता के पक्ष में’ (अ डिफेंस ऑफ द पोएट्री) में इस बारे में विस्तार से लिखा भी है.
बहरहाल, मैं जिस औपन्यासिक दस्तावेज की बात कर रहा हूं वह रॉबर्ट कार्सटेयर्स के द्वारा लिखित (हाड़माज विलेज)और शिशिर टुडू द्वारा अनुवादित ‘ऐसे हुआ हूल’ है. कार्सटेयर्स 1885 से 1898 तक तत्कालीन संताल परगना जिला के डिप्टी कमिश्नर रहे थे. वह करीब 13 वर्षो तक दुमका में पदस्थापित रहे उन्होंने अपनी यादों को ‘हाड़माज विलेज’ में दर्ज किया जो 1935 में किताब की शक्ल में आयी. यहां यह बताना भी रोचक होगा कि 1935 में ‘हाड़माज विलेज’ सिर्फ सौ प्रतियां ही छपी जिसे प्रकाशन के कुछ ही समय के बाद तत्कालीन कंपनी सरकार द्वारा प्रतिबंधित कर दिया गया. किताब में न केवल पहाड़िया और संतालों के बीच के बुनियादी फर्क को दर्ज किया गया है बल्कि आदिवासी समाज की प्रकृति आधारित प्राकृत जीवन पद्धति को, उसके बुनियादी समाजशास्त्र को, सामाजिक सहभागिता के उनके सहज नियमों को बेहतरीन और काफी हद तक तटस्थ तरीके दर्ज किया गया है.
शिशिर टुडू के सरल और सार्थक अनुवाद में इस उपन्यास को पढ़ते हुए आप बरबस ही संताल (दुमका, गोड्डा और उसके आस पास) के इलाकों में पहुंच जायेंगे. इस किताब को पढ़ते हुए हम उस ऐतिहासिक चूक से भी वाकिफ होते हैं जो हमारे ज्यादातर लोकप्रिय इतिहासकारों या इतिहास से संबंधित चीजों को लिखनेवालों ने की है; आमतौर से हमारा इतिहास लेखन पुरातात्विक अवशेषों और बहुत हाल की बात करें तो ‘कार्बन 14’ जैसी भौतिक विज्ञान पर आधारित पद्धतियों पर निर्भर करता है. लेकिन जब आदिवासी या सब्लार्टन इतिहास लेखन की बात आती है तो ये विधियां हमारा बहुत साथ नहीं दे पाती और हमारा लिखना सिर्फ हमारे अनुमानों पर आधारित हो जाता है. ऐसे में ‘ऐसे हुआ हूल’ उन तमाम इतिहास कार्यो पर भारी पड़नेवाला उपन्यास है. उपन्यास पढ़ते हुए हम उन द्वंद्वों को बखूबी समझ पाते हैं जिनकी वजह से शांति प्रिय संताल एक खूनी संघर्ष करने को मजबूर हुए. हूल की कहानी केवल एक जमीन या सत्ता के संघर्ष की कहानी नहीं है. यह एक समुदाय की उस चेतना के संघर्ष की कहानी है जिससे उसकी अस्मिता जुड़ी हुई है, और जिसके (चेतना) के अभाव में वह समुदाय खुद को जीवित भी मानने को तैयार नहीं होगा. हूल जीवित रहने के अधिकार की लड़ाई भर नहीं था बल्कि अपने शर्तो पर जीवित रहने के लिए संतालों ने अंगरेजों के खिलाफ हूल का आह्वान किया था.
जैसा कि उपन्यास की प्रस्तावना में वरिष्ठ पत्रकार हेमंत ने लिखा है कि ‘उपन्यास पढ़ते हुए ऐसा प्रतीत होगा कि आप संताल परगना के संताल गांवों को वर्ष के विभिन्न मौसमों और त्योहारों के अवसर पर अपनी आंखों से देख रहे हैं.’ कार्सटेयर्स के लिखने की सबसे खास बात यह रही कि उन्होंने इस उपन्यास में अंगरेजी दिक् और काल (टाइम एंड स्पेस) का इस्तेमाल न करते हुए आदिवासी दिक् और काल को दिखाने का यथा संभव प्रयास किया है. हालांकि कार्सटेयर्स ने हूल के मुख्य नायकों सिद्धू और कान्हू और उनके परिवार वालों का जिक्र उतना करने से बचते दिखे हैं जितना आंदोलन के मुख्य नायक होने के नाते उन्हें करना चाहिए था.
हालांकि, इस बात के लिए कार्सटेयर्स को रियायत दी जा सकती है. हमें यह समझना होगा कि इस दंडीमारी के बावजूद, कि सिद्धू कान्हू को प्राथमिकता देने के बजाय कार्सटेयर्स ने अपने उपन्यास के बड़े हिस्से में ‘साम टुडू’ और ‘हाड़मा’ के चरित्र चित्रण किया और न केवल उन्हें सिद्धू कान्हू के बरक्स हूल का नेता बनाया बल्कि बाज दफे ‘साम टुडू’ और ‘हाड़मा’ को अंगरेजों के प्रति सहानूभुति रखनेवाला भी दिखाया, कार्सटेयर्स ने कहीं पर भी आदिवासियों को कम सभ्य या समझदारी वाला नहीं दिखाया, जबकि ज्यादातर अंगरेज और अब भी ‘अंगरेजीयत की शिकार’ (इलीट समाज) आदिवासियों को कम सभ्य और खुद को उनका उत्थान करनेवाला ही मानते हैं. हमें यह भी समझना होगा कि कार्सटेयर्स एक प्रशासनिक पदाधिकारी थे और पद पर रहते हुए उनकी कुछ व्यावहारिक सीमाएं भी थी. जिसके बाहर जाना कार्सटेयर्स के लिए संभव न रहा होगा. किताब में हूल की कहानी क्या है से ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि किस तरह से संताल समाज को चित्रित किया गया है. यकीन के साथ कहा जा सकता है कि न केवल सन 35 के आस पास जिन शहरी लोगों (जो आदिवासी समाजों के बारे में या तो बहुत कम या बहुत भयावह जानकारियां रखते होंगे) ने इस उपन्यास को पढ़ा होगा उनके सामने आदिवासियों की काफी अलग और वस्तुनिष्ठ छवी बनी होगी और आदिवासियों को लेकर उनकी समझदारी में बुनियादी फर्क आया होगा और आज भी जब जगह जगह आदिवासियों को मुख्यधारा में शामिल करने के नाम पर बरबर सरकारी कार्रवाइयां हो रही है तब एक बार फिर जरूरत है कि सरकार कार्सटेयर्स के लिखे इस दस्तावेज से समङो की वास्तव में आदिवासी होना क्या है. विनोद कुमार शुक्ल की एक कविता है ‘जो प्रकृति के सबसे निकट है’:
जो प्रकृति के सबसे निकट है
जंगल उनका है
आदिवासी जंगल के सबसे निकट है
इसलिए जंगल उनका है
अब उनके बेदखल होने का समय है
यह वही समय है जब आकाश से पहले एक तारा बेदखल होगा
जब पेड़ से पक्षी बेदखल होगा
आकाश से चांदनी बेदखल होगी
जब जंगल से आदिवासी बेदखल होंगे.
इस समय में शिशिर टुडू का यह काम इसलिए महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि ‘ऐसे हुआ हूल’ हमें यह तुलना करने का मौका देता है कि 150 वर्ष पहले और की स्थितियों में क्या फर्क आया है. आदिवासी कितने सुरक्षित/ असुरक्षित हुए हैं. हूल की स्थितियों में कितना परिवर्तन हुआ है. हालांकि, हिंदी में इस उपन्यास को आने में काफी समय लगा इससे पहले यह अंगरेजी, संताली, बांग्ला और उर्दू में प्रकाशित हो चुकी है.
जैसा कि उपन्यास की प्रस्तावना में वरिष्ठ पत्रकार हेमंत ने लिखा है कि ‘उपन्यास पढ़ते हुए ऐसा प्रतीत होगा कि आप संताल परगना के संताल गांवों को वर्ष के विभिन्न मौसमों और त्योहारों के अवसर पर अपनी आंखों से देख रहे हैं.’ कार्सटेयर्स के लिखने की सबसे खास बात यह रही कि उन्होंने इस उपन्यास में अंगरेजी दिक् और काल (टाइम एंड स्पेस) का इस्तेमाल न करते हुए आदिवासी दिक् और काल को दिखाने का यथा संभव प्रयास किया है. हालांकि कार्सटेयर्स ने हूल के मुख्य नायकों सिद्धू और कान्हू और उनके परिवार वालों का जिक्र उतना करने से बचते दिखे हैं जितना आंदोलन के मुख्य नायक होने के नाते उन्हें करना चाहिए था.
हालांकि, इस बात के लिए कार्सटेयर्स को रियायत दी जा सकती है. हमें यह समझना होगा कि इस दंडीमारी के बावजूद, कि सिद्धू कान्हू को प्राथमिकता देने के बजाय कार्सटेयर्स ने अपने उपन्यास के बड़े हिस्से में ‘साम टुडू’ और ‘हाड़मा’ के चरित्र चित्रण किया और न केवल उन्हें सिद्धू कान्हू के बरक्स हूल का नेता बनाया बल्कि बाज दफे ‘साम टुडू’ और ‘हाड़मा’ को अंगरेजों के प्रति सहानूभुति रखनेवाला भी दिखाया, कार्सटेयर्स ने कहीं पर भी आदिवासियों को कम सभ्य या समझदारी वाला नहीं दिखाया, जबकि ज्यादातर अंगरेज और अब भी ‘अंगरेजीयत की शिकार’ (इलीट समाज) आदिवासियों को कम सभ्य और खुद को उनका उत्थान करनेवाला ही मानते हैं. हमें यह भी समझना होगा कि कार्सटेयर्स एक प्रशासनिक पदाधिकारी थे और पद पर रहते हुए उनकी कुछ व्यावहारिक सीमाएं भी थी. जिसके बाहर जाना कार्सटेयर्स के लिए संभव न रहा होगा. किताब में हूल की कहानी क्या है से ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि किस तरह से संताल समाज को चित्रित किया गया है. यकीन के साथ कहा जा सकता है कि न केवल सन 35 के आस पास जिन शहरी लोगों (जो आदिवासी समाजों के बारे में या तो बहुत कम या बहुत भयावह जानकारियां रखते होंगे) ने इस उपन्यास को पढ़ा होगा उनके सामने आदिवासियों की काफी अलग और वस्तुनिष्ठ छवी बनी होगी और आदिवासियों को लेकर उनकी समझदारी में बुनियादी फर्क आया होगा और आज भी जब जगह जगह आदिवासियों को मुख्यधारा में शामिल करने के नाम पर बरबर सरकारी कार्रवाइयां हो रही है तब एक बार फिर जरूरत है कि सरकार कार्सटेयर्स के लिखे इस दस्तावेज से समङो की वास्तव में आदिवासी होना क्या है. विनोद कुमार शुक्ल की एक कविता है ‘जो प्रकृति के सबसे निकट है’:
जो प्रकृति के सबसे निकट है
जंगल उनका है
आदिवासी जंगल के सबसे निकट है
इसलिए जंगल उनका है
अब उनके बेदखल होने का समय है
यह वही समय है जब आकाश से पहले एक तारा बेदखल होगा
जब पेड़ से पक्षी बेदखल होगा
आकाश से चांदनी बेदखल होगी
जब जंगल से आदिवासी बेदखल होंगे.
इस समय में शिशिर टुडू का यह काम इसलिए महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि ‘ऐसे हुआ हूल’ हमें यह तुलना करने का मौका देता है कि 150 वर्ष पहले और की स्थितियों में क्या फर्क आया है. आदिवासी कितने सुरक्षित/ असुरक्षित हुए हैं. हूल की स्थितियों में कितना परिवर्तन हुआ है. हालांकि, हिंदी में इस उपन्यास को आने में काफी समय लगा इससे पहले यह अंगरेजी, संताली, बांग्ला और उर्दू में प्रकाशित हो चुकी है.