मैंने फैसला किया था कि हजारीबाग की घटना के बारे में सारी बातें बताऊंगा, लेकिन पहले मैं समझ लूँ की वहां आखिर हुआ किया? और इस प्रयास इतने दिन लग गये...... खैर अब मैं कुछ-कुछ समझ पाया हूँ की वहां जो कुछ भी हुआ हो या जो कुछ भी हुआ वह साहित्यिक तो बिलकुल नहीं था समाजिक भी नहीं था, और घटना को फिर से दुहरना उसे दुबारा पुनर्जीवित करना एक संतोष जनक बेबकूफी से ज्यादा और कुछ भी नहीं होगा। हाँ गोष्टी से कुछ बातें और सवाल जो उठ कर आये उनपर अगर विचार किया जाय तो कुछ बात बन सकती है. मसलन "वर्तमान समय में एक लेखक की क्या भूमिका है" इस समंध में जो भी चर्चा वहां हुई वह अवश्य ही बोधिक स्तर पर काफी प्रभावशाली थी लेकिन मुझ जैसे कम समझ दार लोगों के लिए यही सवाल आज भी बडा और अहम है की एक लेखक आदमी या मानव पहले है या फिर लेखक. और अगर वह आदमी पहले है तो पहले उसे आदमी होने का कर्तव्य निभाना चाहिए या लेखक होने का. दूसरा सवाल जो मेरे मन में आ रहा है वह है कि क्या लेखक वैचारिक स्तर पर और व्यक्तिगत स्तर पर दो अलग-अलग जीवन जी सकता है. शायद यही से यह बात भी उठ कर आती है कि क्या एक लेखक को सामाजिक बुराइयों के खिलाफ डंडा लेकर खडा हो जाना चाहिए ?? या लेखक सिर्फ इस लिए लेखक होता है कि वह तमाम सामजिक बुराइयों को पंचसितारा होटल के कमरे से शराब कि चुस्कियों के साथ देखे और फिर उसे बडे ही कुरूप शब्दावरण में लपेट कर बाहर समाज को दे दे, ताकि समाज उसका रोना रोते रहे.....और अगर इतना करना संभव न हो कि लेखक डंडा लेकर चल निकले तो भी मेरे विचार से विचारों और कार्यों में तो समानता होनी ही चाहिएमेरी समझ में साहित्य शरू से ही भोग और क्रांति दोनों का ही माध्यम रहा है एक और जहाँ दरबारी कवियों कि एक लम्बी फेहरिस्त है वही दूसरी ओर 'कबीर' जैसा कवि तमाम सामाजिक पाखंड कि धजिय्याँ उडाता रहा है मतलब इससे है कि हम किसे आदर्श के रूप में लेतें है साथ ही हम कैसा इतिहास बनान चाहते हैं.सवालों कि आहमियत आज के समय में और भी ज्यादा बढ़ जाती है क्योकि कि आज हम चौतरफा परेशानियों से घिरे हैं, जितनी ज्यादा परेशानियाँ हैं उतने ही विकल्प भी हमारे सामने खुले हुए हैं और हम चुनाव कि समस्या से अनूठे रूप में जकडे हुए है वह इस लिए कि हम सोच के स्तर पर और कार्य के स्तर पर स्थिर नहीं है दोनों के बिच का बडा अंतर हमें उस समस्या कि और ले जा रहा है.ज़रूरत है कि हम अपने आपको स्थिर कर समय को अस्तीर करने की सोचें और इस्स्में अंतः हमारा बुद्धिजीवी वर्ग जो जीवन जीवी भी हो ही सहयोग कर सकता है .
चलते-चलते अज्ञेय की कविता उड़ चल हारिल जो आज "कविता कोष " पर तफरी के दौरान मिली
उड़ चल हारिल लिये हाथ में
यही अकेला ओछा तिनका
उषा जाग उठी प्राची में
कैसी बाट, भरोसा किन का!
शक्ति रहे तेरे हाथों में
छूट न जाय यह चाह सृजन की
शक्ति रहे तेरे हाथों में
रुक न जाय यह गति जीवन की!
ऊपर ऊपर ऊपर ऊपर
बढ़ा चीर चल दिग्मण्डल
अनथक पंखों की चोटों से
नभ में एक मचा दे हलचल!
तिनका तेरे हाथों में है
अमर एक रचना का साधन
तिनका तेरे पंजे में है
विधना के प्राणों का स्पंदन!
काँप न यद्यपि दसों दिशा में
तुझे शून्य नभ घेर रहा है
रुक न यद्यपि उपहास जगत का
तुझको पथ से हेर रहा है!
तू मिट्टी था, किन्तु आज
मिट्टी को तूने बाँध लिया है
तू था सृष्टि किन्तु सृष्टा का
गुर तूने पहचान लिया है!
मिट्टी निश्चय है यथार्थ पर
क्या जीवन केवल मिट्टी है?
तू मिट्टी, पर मिट्टी से
उठने की इच्छा किसने दी है?
आज उसी ऊर्ध्वंग ज्वाल का
तू है दुर्निवार हरकारा
दृढ़ ध्वज दण्ड बना यह तिनका
सूने पथ का एक सहारा!
मिट्टी से जो छीन लिया है
वह तज देना धर्म नहीं है
जीवन साधन की अवहेला
कर्मवीर का कर्म नहीं है!
तिनका पथ की धूल स्वयं तू
है अनंत की पावन धूली
किन्तु आज तूने नभ पथ में
क्षण में बद्ध अमरता छू ली!
ऊषा जाग उठी प्राची में
आवाहन यह नूतन दिन का
उड़ चल हारिल लिये हाथ में
एक अकेला पावन तिनका
अभी कुछ देर पहले हजारीबाग से लौटा हूँ। परसों शाम के वक़्त खबर मिली की 'नामवर सिंह' वहां आने वाले हैं, प्रगतिशील लेखक संघ के द्वितीय राज्य स्तरीय सम्मलेन में. वैसे मैं खुद किसी संघ से जुडा हुआ नहीं हूँ लेकिन किसी न किसी कारण से प्रगतिशील लेखक संघ के कार्यक्रमों में श्रोता के रूप में पिछले 3 वर्षों से शामिल होता रहा हूँ, ओछी राजनीति को इसका हिस्सा मानते हुए भी कुछ अच्छा सुन लेने के लालच मुझे वहां खीच ले जाती है क्यों की शहर मैं कोई और संघ या गुट साहित्यिक माहौल का निर्माण करता नज़र आता, बहरहाल मैं 'नामवर सिंह' को सुनने जमशेदपुर से हजारीबाग (252 km) गया कार्यक्रम २ बजे शुरू होने वाला था और शुरू हुआ 3:30 में, हलाकि की ये कोई बड़ी बात नहीं थी और भी देरी हो सकती थी अगर आधे घंटे बाद 'नामवर जी' को धनबाद जा कर दिल्ली के लिए गाड़ी न पकड़नी होती. यह मेरे लिए बहुत दुखद बात थी क्योंकि मेने सुन रखा था की नामवर जी आधे घंटे के बाद बोलना शुरू करते हैं और उनके लेखों से मुझे लगता था कि उनको सुनना सचमुच में रोचक होगा खैर मैं सोचा कि नामवर जी जैसा विद्वान तो आधे घंटे में ही हमारी मानसिक खुराक पूरी कर देगा. लेकिन जब 'डॉ. खगेन्द्र ठाकुर' ने हमे यह बतया की माइक की व्यवस्था नहीं हो पाई है तो मेरे लिए वह कुढ़ कर रोने वाली स्थिति थी .......'नामवर जी' को "वर्तमान समय में साहित्यकारों की भूमिका" पर बोलना था वो बोले लेकिन बहुत कम बोले. उनके कहने को टिक -टीक आक्स बनता अगर उनकी आवाज़ हम तक टीक-टीक पहुँचती, जितनी भी बात हम तक पहुंची उससे जो सर निकलता है वह यह है की अगर भारत इस समय में पाकिस्तान पर हमला करता है तो वह देश में दंगों का कारण बन सकता है, विश्वा का सबसे बाधा आतंकवादी अमेरिका है और हमे अभी समय बहुत ख़राब है और हमें बहुत सयम से काम लेना चाहिए। लेकिन जब उनसे ये पूछा गया की ये स्याम कितने समय के लिए होगा तो वो जाने कौन सा शेर सुना कर चल निकले, तना तो तय था की उन्होंने उस सवाल का जबाब नही दिया जो उनके सामने रखे गये थे .
नामवर जी को सुनने की मेरी इच्छा इच्छा के रूप में ही रह गई पता नही क्यों मुझे लगता है वो कम के साथ-साथ संतुलित भी बोले शायद यही संतुलन हमारे समाज के लिए, साहित्य के लिए खतरनाक होता जा रहा है अब समय आ गया है जब हमे असंतुलित बातें करनी होगी और सच को अपनी तरफ या ख़ुद को सच्चाई की तरफ झुकाना होगा । बातें बहुत सारी है राजनीती में साहित्य और साहित्य में राजनीती की जिन्हें मैं ने पिछले २ दिनों में देखा और भोगा और यहाँ तक की सांसों में जिया है सारी बातें लिखूंगा और कोशिश करूँगा की उनको समझ भी सकूँ ।
फिलहाल फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की एक ग़ज़ल जो इस वक्त मेरे दिल और दिमाग पर नशे की तरह तारी है और बहुत आराम पंहुचा रही है ।
अब कहाँ रस्म घर लुटाने की
बर्कतें थी शराबख़ाने की
कौन है जिससे गुफ़्तुगु कीजे
जान देने की दिल लगाने की
बात छेड़ी तो उठ गई महफ़िल
उनसे जो बात थी बताने की
साज़ उठाया तो थम गया ग़म-ए-दिल
रह गई आरज़ू सुनाने की
चाँद फिर आज भी नहीं निकला
कितनी हसरत थी उनके आने की
http://www.kavitakosh.org
(से साभार )
आज फ़िर अपने एक नए ब्लॉग पर पहला पोस्ट । जहाँ तक मुझे याद है यह मेरा छटा ब्लॉग है, जिन छह में से तीन पर तो कभी कोई पोस्ट डाली ही नही गई, एक ब्लॉग जो मेरे द्वारा चलाया जाता है लेकिन वो मेरा निजी नही है. एक, जिसपर मैं पिछले तीन महीने से आपना स्थाई ब्लॉग होने का दंभ भर रहा था तथा जिस पर हर हफ्ते एक पोस्ट डालने की कोशिश करता था एवं जिसमें पिछले दो महीने से असफल रहा था ।
मुझे यह बात बहुत परेशान कर रही है कि आख़िर ऐसा क्या है जो मुझे हर बार एक नया ब्लॉग बनने को विवश करता है , लेकिन मुझे पता है कि जो लोग इस पोस्ट को पड़ेंगे उनके लिए इससे ज़्यादा चिंता का विषय यह होगा कि मेरे पहले के ब्लॉग का क्या हुआ ?मैं शायद इस सवाल का जबाब दे पाऊं , लेकिन मुझे पता है मेरा जबाब भी मेरी ख़ुद की गलतियों को जस्टिफाई करने से ज़्यादा कुछ भी नही होगा । वैसे मेरे ख्याल से हम जो कुछ भी करते हैं वो अपने आप को जस्टिफाई करने के लिए ही करते हैं , और जब यही ख़ुद को जस्टिफाई करने कि इच्छा ख़त्म हो जाती है तो इन्सान काम करना बंद कर देता है , हाँ ये हो सकता है कि हर आदमी अपने आप को अलग-अलग छेत्र में जस्टिफाई करना चाहे, और हर आदमी के ख़ुद को जस्टिफाई करने का तरीका अलग हो, बहरहाल मेरा ख़ुद को जस्टिफाई करने का माद्यम लिखना है और जब मुझे लगने लगता है कि ऐसा कोई नही जिसके सामने मैं ख़ुद को जस्टिफाई करूँ तो मैं लिखना बंद कर देता हूँ । और जब लिखना बंद कर देता हूँ तो ब्लॉग पर मेरे पास ब्लॉग पर पोस्ट करने के लिए कुछ भी नही रह जाता, जब पोस्ट करने के लिए कोई सामग्री नही हो तो ब्लॉग के 'डेशबोर्ड ' तक जाने कि ज़रूरत भी नही रह जाती , जब ब्लॉग का 'डेशबोर्ड ' नही खुलता तो मेरे जैसा बंद जिसे ख़ुद का फ़ोन नम्बर याद करने में हफ्ते भर का समय लगता हो अपने खाते का पासवर्ड भूल जाता और फिर मुझ जैसों को यह महसूस होता है कि ख़ुद को जस्टिफाई करना होगा तो वह फ़िर से एक नया ब्लॉग बनता है ।
अब मैं आपको उन कारणों कि तरफ ले जाता हूँ जिन्होंने मुझे ख़ुद को जस्टिफाई करने कि ज़रूरत से मुक्त किया , मुझे लगता है एक व्यक्ति सबसे पहले अपने अपने 'जन्म देने वाले' फ़िर 'जिनके सहारों पे वो बढता है 'उनके , और फ़िर उस 'समाज' जो उनसब के होने का कारण होता है के प्रति जिम्मेदार होता है हो सकता है कि मैंने जो सीढ़ी बनाई है वो कुछ के लिए उलटी हो फ़िर भी इससे मेरी बातों को फर्क नही पड़ेगा. जहाँ तक पहली दो जिम्मेदारियों का सवाल है तो वो घर से दूर होने के बाद भी दूरसंचार कि सुविधाओं के कारण लगभग हर रोज़ पुरा करता हूँ हलाकि कि अभी ये जिम्मेदारी से ज़्यादा ख़ुद कि तीमारदारी ही होती है ।
अब उस जिम्मेदारी कि ओर जो 'समाज' के प्रति मेरी बनती है और जिसे उसका पुरा हक है कि वो मुझसे जस्टिफिकेशन मांगे । मैंने ने पिछले दो महीने से अपने आप को जस्टिफाई नही किया क्यों कि मुझे नही लगा कि मुझे करना चाहिए .......
आख़िर कोई क्यों आपने आप को जस्टिफाई करे भी उसके सामने जो ख़ुद अपने होने के संकट से जूझ और हो, मुझे बचपन से पढाया जाता रहा कि 'सरकारें समाज के हित के लिए बनाई जाती है' , जब से मिडिया के बारे मैं सुना तब से यही जाना की मिडिया लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ होता है, पुलिस न्याय कि रक्छक होती है, बाज़ार के बारे में मैंने पढा है की वर्तमान बाज़ार हमे चुनने की सुविधा देता है, अपनी स्कृति के बारे में जाना था कि अनेकता में एकता इसकी पहचान है...... लेकिन क्या पिछले दो महीने में जो हुआ उसका जस्टिफिकेशन हमारी सरकार, हमारी मिडिया, हमारा बाज़ार, और हमारे संस्कृति के दलाल देंगे ??? क्या हमारी सरकार हमे यह बताएगी की क्यों हम अपने ही देश में 'बिहारी' , 'गुजरती', और 'मुम्बैया' हैं, क्या सरकार के पास इस बात का जबाब है कि क्यों हमें इस बात कि गारंटी नहीं है कि टुकडों में जीने के बाद हमारी पूरी लाश को मिटटी नसीब हो. क्या हमारा मिडिया ये बतायेगा कि किस 'राम' ने या किस 'पैगम्बर' ने 'हिन्दू' या 'इस्लामिक' आतंखवाद कि स्थापना कि.....हम कब तक ये उम्मीद रखें की 'इस ब्रेक के बाद' इसके (मिडिया) सरोकार भारतीय हो जायेंगे......आखिर कब हमारा मिडिया हमे sms के जाल से आजाद करा, हमे हमारा हक दिलाने की बात करेगा ??? कब हमारी पुलिस हिन्दू या मुसलमान को नहीं पकड़ कर एक आतंखवादी को पकडेगी.....कब पुलिस नेताओं की नहीं जनता की हिफाज़त करेगी और अगर वो ऐसा नहीं कर सकती है तो इसका जस्टिफिकेशन क्या है ??आखिर क्यों हर बार 'राम' की हिफाज़त का काम किसी न किसी रावण को सोंपा जाता है....कब तक उनकी मर्यादा को सिर्फ एक ईमारत तक में सिमित कर के रखा जायेगा आखिर कब तक ????