(1)
लो लिख मारी
मैंने एक और कविता हाँ,तुम्हारे ऊपर ....
तुम जो वर्ग की श्रेणी में मध्यम आते हो
तुम न शोषक हो न शोषित ...
फिर भी पता नहीं क्यों डरते हो थोड़े से अक्षरों से......उनकी अर्थवान एकता से ....
खैर, जबकि तुम
पहचान लिए गए हो
मेज के उस तरफ बैठे आदमी के एजेंट के रूप में
तो तुमसे क्या कहूँ ...
तब जबकि
तुम में से किसी ने अपने बच्चे के सवाल को डांट कर चुप करा दिया है .......
कोई अपनी बीबी को अपने साहब के पास बेच आया है......
कोई बहुत तत्परता से हमारी रिपोर्ट वहां दर्ज करा रहा है .....
फिर भी अगर संभावना हो तो एक प्रशन कर सकता हूँ ????
श्रीमान,आपने क्या किया उन नितिवाक्यों का जो आपको बचपन में उधार दिए गए थे ?
और, उन विचारों का जो आप अक्सर बलात्कार की खबर पढ़ कर प्रकट करते हैं ?
या फिर उसी उपदेश का, जो आपने सुबह 9 से 10 के बीच बस की भीड़-भाड़ में किसी स्कुल जाते बच्चे को दिया ?
उस समय आपकी चिंता भी बहुत जायज़
थी "आज काल बच्चे झूट बहुत बोलते हैं".
हलाकि मैं जनता हूँ
अपने हस्ताक्षर का इस्तेमाल करके
आपने अक्षरों की एकता से पैदा हुए खतरे को टाला है........
लेकिन साथी, वो कोई दूसरा तो नहीं होता
तुम ही होते हो ...
जो प्याज़ की मंहगाई पर -- सब्जी की दुकानों में
दूध में मिलावट पर --टेलीविजन चैनलों पर
और लोकतंत्र के ढांचे पर -- विश्वविद्यालयों में बोलते हुए पाए जाते हो .........
(2)
जब तुम सुनते
हो कीटनाशक पी , किसान ने की आत्महत्या
क्या तुम्हारे नाक के आस-पास सिकुडन पैदा होती है ?
क्या तुम महसूस करते हो अपने आस-पास हवा में अतिरिक्त निम्न-दबाव ....
तुम्हारे फेफड़े में उठता है कोई तूफान ?
क्या तुमने कभी सोचा है ...........
सेंसेक्स और सेक्स की इस दुनिया में,
लोग सल्फास का
सहारा क्यों लेते हैं ???
नरेन्द्र मोदी से रविवार 29 मार्च को दो बैठकों में 9 घंटे पूछताछ हुई. उनसे मैराथन बातचित कर यह पता लगाने का प्रयास किया गया होगा कि 2002 के दंगों, खास तौर से उस घटना, जिसमें गुलबर्ग सोसायटी में रहने वाले सांसद सहित 62 लोगों को जिंदा जला दिया गया था , में सरकार की क्या भूमिका रही थी . आरोप है कि अगर सरकार और मुख्यमंत्री चाहते तो ऐसा होने से रोका जा सकता था. इस मामले में दायर याचिका में कहा गया है कि 'बार-बार फ़ोन करने पर भी पुलिस अधिकारीयों द्वारा ध्यान नहीं दिया गया. स्वयं मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी भी समय पर मदद क्या भेजते, उलटे उन्होंने जाफरी को ही फटकार सुनाई थी.'
उपर्युक्त सारी बातें अख़बारों में लिखी जा चुकीं है, टेलिविज़न चैनलों पर कही जा चुकि है . बल्कि इससे एक कदम आगे, जैसा की इस समय का चरित्र है, पूरी मीडिया 'नरेन्द्र मोदी से हुई लम्बी पूछताछ का महोत्सव मना रही है.अभी हाल में केरल जाना हुआ था, वहीँ एक सार्वजिनक सभा में 'भारतीय महिला मुस्लिम आन्दोलन' की संस्थापक 'जाकिया सोमेन' दक्षिण एशिया में महिलाओं पर बढती हिंसा पर बोल रहीं थी. वह मुलत: गुजरात से हैं,और सामजिक कार्य करने का उनका कार्य क्षेत्र भी ज़्यादातर गुजरात ही रहा है इसलिए ऐसा हुआ होगा की बोलते हुए उन्हें पता न चला हो कि वह कैसे गुजरात के दंगों और उसमें सरकार कि भूमिका पर बोलने लगी . हलाकि यह विषयांतर था लेकिन किसी भी तरह की हिंसा का दंगों से ज्यादा बड़ा छदम रूप क्या हो सकता है कि मारने वाला नहीं जनता हो कि वह किस कारण से किसी को मार रहा है, या अगर जनता भी हो तो वह कारण ही निराधार हो जिसका पता मारने वाले को शायद कभी नहीं चलता और न ही मरने वाले को पता होता है कि उसने जिसे 'मारते' (हत्या करते) हुए उसने देखा है दरअसल वह उसे नहीं मार रहा....
बहरहाल, जाकिया ने कहा -- हम ने बचपन से ही देखा है , जब भी शहर में तनाव होता था, वे (मुसलमान) जो मुस्लिम इलाकों के सीमा पर रहते थे घर छोड़ कर बीच बस्ती में अपने रिश्तेदारों के यहाँ चले जाते, जब तनाव काम होता तो वापस आते, अपने जले हुए घरों को ठीक करते, जान बच जाने के लिए अल्लाह का शुक्रिया अदा करते--- इन घरों में जाकिया के नाना का घर भी शामिल होता था .
लेकिन बकौल जाकिया 2002 के दंगे अपनी संरचना में, अपनी कार्यशैली में, और अपने उद्देश्य में ( पाठक आश्चर्य कर सकते हैं लेकिन दंगों की भी अपनी संरचना होती है, वो एक तय शुदा कार्यक्रम से भड़काए जाते हैं एक उद्देश्य के साथ) अलग थे . जिसने जाकिया और उन जैसी कई 'जाकियाओं' की ज़िन्दगी के ताने बाने को, उसकी संरचना को, उसकी कार्यशैली को सबसे ज्यादा प्रभावित किया. 2002 तक गुजरात काफी तरक्की (आर्थिक विकास) कर चूका था, आहमदाबाद काफी तरक्की कर चूका था, इसलिए वहां के मुसलमान भी (माध्यम वर्गीय) आर्थिक रूप से समृद्ध हुए थे जो अब बस्तियों से निकल कर रिहायशी फ्लेटों में रहने लगे थे .
2002 के दंगों में दंगाइयों के पास पूरी लिस्ट थी कि कौन से अपार्टमेन्ट के किस फ्लेट में कोई मुसलमान रहता है ......क्या यह महज़ एक समाज का उग्र मन था या एक सुनियोजित आक्रामकता ? क्या सरकारी तंत्र को इसकी भनक पहले से नहीं रही होगी जबकि गुजरात एक तथाकथित संवेदन शील राज्य माना जाता है ...और अगर नहीं भी थी तो फिर सुचना-सुरक्षा पर इतना खर्च क्यूँ ? खबर न होने कि सजा किसको मिलेगी ? इसकी नैतिक ज़िम्मेदारी कौन लेगा ? क्या कोई भी व्यक्ति जिसको राज्य व्यवस्था की थोड़ी भी समझ हो वह यह मान सकता है की 2002 में जो कुछ हुआ उसके लिए सरकार जिम्मेदार नहीं है ?
खैर, जाकिया कह रही थी कि 2002 के दंगों में उसने दोस्त खोये,वे साथी जिनसे उठाना बैठना था एकदम से हिन्दू-या-मुसलमान हो गए और ऐसा ही अब भी है. लोड लगातार हिन्दू या मुसलमान होते चले जा रहे हैं..........
यह पूछे जाने पर की क्या ऐसा सिर्फ एक रात में अचानक से हो गया ? जाकिया ने जो बताया वह बहुत महत्वपूर्ण है, वह दंगों से पहले सरकार (अगर हम अब भी मने की वहाँ कोई ऐसी सरकार थी जो जनता के द्वारा जनता के लिए चुनी गई थी ) की भूमिका पर संदेह पैदा करती है और हमारे सामने उन 'टूल्स' को खोलती है जिसके माध्यम से राजनीतिक ताकतें सामान्य भावनाओं का इस्तमाल अपने हक में कर ले जाती है .....
जाकिया ने कहा कि वहां (गुजरात में) सम्प्रदायवादी ताकतें ( जाहिर है जाकिया का इशारा बी.जे.पी., आर.एस.एस., विश्वा हिन्दू परिषद्, आदि कि ओर है) ऐसे आनुष्ठानो, यज्ञों , का आयोजन करते हैं जिनका उद्देश्य होता है लोगों को सत्कर्म कि तरफ ले जाना ऐसे अनुष्ठानो में बहुत चालाकी से ऐसे मानवीय व्यवहारों को जो मुसलमानों में प्रचलित है अपयशकारी बताया जाता है. जाकिया ने तो उन किताबों का भी ज़िक्र किया जिनमें यहाँ तक लिखा होता है कि एक अच्छी माँ को चाहिए की वह अपने बच्चे को मुसलमानों से मिलने से रोके, या साइकिल का पंचर कभी भी किसी मुस्लिम कारीगर से नहीं बनवाना चाहिए इससे पाप होता है..........
क्या अगर ये सब कुछ एक लोकतान्त्रिक सरकार की उपस्थिति में हो रहा है तो उस सरकार की, सरकार की पुलिस की ज़िम्मेदारी तभी बनती है जब कोई ऍफ़ आई आर दर्ज हो ....या जब अमानवीयता अपने चरम पर हो (वैसे आरोप तो है की गुजरात में सरकार (!) ही अमानवीय थी/है ) ?
दरअसल, ये वो तरीकें हैं जिससे एक पुरे समाज के सोच को नियंत्रित कर लिया जाता है ताकि बाद में जो भी हो उसको जस्टिफाय किया जा सके ......
आप सोच रहे होंगे की इन जानी हुई बातों को दुहराने का क्या मतलब ? वो भी तब जब नरेन्द्र मोदी से लम्बी पूछताछ ( का नाटक, आस पास देखिये कहीं कोई चुनाव नहीं है और इस पूछताछ से किसी को कोई राजनीतिक नुकसान नहीं होने वाला) हो चुकि है लगता है की कुछ न कुछ हो रहेगा अब ...
मीडिया कभी इसे न्याय की जीत तो कभी मोदी का घमंड टूटना कह रहा है ....तो मुझे याद आ रहा है वो शायद बी. जे. पी. का शाशन काल था जब लालू यादव को चारा घोटाले के मामले में जेल जाना पड़ा था तब भी लगा था की कुछ न कुछ हो रहेगा क्या हुआ वो हम सब जानते है .......
फिर भी अगर नरेन्द्र मोदी पर वापस लौटें, एस आई टी पर वापस लौटें और गुजरात में मोदी के होने के मायनों को तलाशें, 2002 में सरकार (!) की भूमिका को परखें तो हम यही पाएंगे की 9 घंटे काफी नहीं है, ( शायद यह भावुकता हो पर मुझे लगता है कानून को इतना संवेदनशील तो होना ही चाहिए) 90 दिन का रिमांड चाहिए, सिर्फ एक गुलबर्ग सोसायटी में नहीं मोदी ने जहर पुरे गुजरात में फैलाया है . मीडिया में जो मोदी महोत्सव (रावण वध कि तरह ही सही ) चल रहा है वह यही समझाता है कि मोदी सबसे ज्यादा शक्तिशाली आदमी है/था इस देश के संविधान और कानून से भी ज्यादा शक्तिशाली और इस शक्तिशाली आदमी जो (दुर्भाग्य से) एक राज्य का मुख्यमंत्री भी है को पहली बार कानून के आगे झुकना पड़ा है . पहली बार किसी मुख्यमंत्री को दंगे जैसे संवेदनशील मामले में इस तरह से पूछताछ के लिए बुलाया गया ........इसे एक सौभाग्य कि तरह पूरा मीडिया प्रचारित कर रहा है ......ऐसा अगर हुआ तो सिर्फ इसलिए कि भारत के संवैधानिक इतिहास में पहली बार ऐसा नरभक्षी मुख्यमंत्री हुआ है, पहली बार किसी राज्य के मुख्यमंत्री की भूमिका इतनी संदिग्ध है और उससे इस्तीफे की मांग करने वाला कोई विपक्ष नहीं है .....
कोई केंद्र सरकार वहां राष्ट्रपति शासन लगाने की बात नहीं कर रहा ? क्या सिर्फ भौतिक परिस्थितोयों का बिगड़ना ही राष्ट्रपति शासन की पहली शर्त होनी चाहिए?
और वे जो इस बात को भुना रहे हैं की मोदी ने कानून का सम्मान किया उन्हें यह समझ दिया जाना चाहिए की मोदी के पास यही एक मात्र उपाय था इसके अलावा वो कर भी क्या सकते थे......