“ऐन एंदेर हूं मां नंजक़न” को पढ़ते हुए...

Posted by हारिल On Friday, April 24, 2015 0 comments
कई बार, कई कहानियों को पढ़ते हुए इस (कु) पाठक के मन में यह प्रश्न उठता रहा है कि जिस तरह से हर कथा में कई उपकथाएँ होतीं हैं क्या उसी तरह से कई उपकथाओं को जोड़ देने से कोई (सार्थक; अगर लेखक का उसपर यकीन हो तो) कहानी बन सकती है? यह प्रश्न एक बार फिर मेरे सामने आया जब मैं मिथिलेश प्रियदर्शी की कहानी “ऐन एंदेर हूं मां नंजक़न” का पाठ कर रहा था। मिथिलेश मेरे/हमारे समय के उन चुनिन्दा अफसाना निगारों में हैं जिनकी कहानियों में खुद को नोटिस कराने की अद्भुत क्षमता है। “ऐन एंदेर हूं मां नंजक़न” शीर्षक कुडुख...

वह मीटिंग कभी तो खत्म होगी, इंतजार है

Posted by हारिल On Friday, April 24, 2015 0 comments
‘यह बस यूं ही में जरूर है, लेकिन ‘बस यूं ही नहीं है.’ यह कहना ऐसा ही है जैसा उस दिन मनबिदका भैया बोले कि बात हंसने की जरूर है, लेकिन मजाक में लेने की नहीं है. हम जानते थे कि मनबिदका भैया ऐसी जटिल हिंदी तभी बोलते हैं, जब उन्हें कोई चीज बहुत बुरी लगी हो, उस समय पोस्ट होली खुमारी में थे और समझ रहे थे कि वह होली के मौके पर बजनेवाले ईल गीतों पर अपना क्षोभ प्रकट करेंगे और फिर हमें चाय पीने का ऑफर देंगे. लेकिन मनबिदका भैया हंस रहे थे और हंसते ही जा रहे थे. सिद्धार्थ ने पूछा, का भांग-ओंग खाये हैं क्या?...

काश, ईयर रिंग की तरह कान उतारे जा सकते

Posted by हारिल On Friday, April 24, 2015 0 comments
जो होना चाहिए वह होता नहीं और कई बार उसे लगता है जो हो रहा है वह होना नहीं चाहिए. तब उसका मन कहता कि कितना अच्छा होता कि तू मशीन होती, तब तुम में भावनाएं नहीं होतीं, तुम सिर्फ उत्पादन का साधन होती, मेयरली अ प्रोडक्शन मीन्स. उसे सबसे ज्यादा गुस्सा तो कलमुंहे तर्क पर आता जो उसकी जिंदगी पर राज करता है, जिस पर उसे सबसे ज्यादा विश्वास है, जिसने उसकी जिंदगी को मथ कर मट्ठा कर दिया है और जिसका रायता वहां से यहां तक 25 सालों में फैला हुआ है, यह नहीं होता तो जिंदगी बेहद आसान होती. हां..ना..सही..गलत के झंझावात...

आहत व नेक लोगों के नाम एक खत

Posted by हारिल On Friday, April 24, 2015 0 comments
जानता हूं, यह ठीक समय नहीं है कि आप लोगों से कोई कड़वी बात की जाए. लेकिन, फिर भी यही मौका है कि मुझ जैसा खाकसार आपसे कुछ कह सके. आप हद दरजे के शरीफ होने के बाद भी देश, समाज, धर्म आदि के नाम पर बेहद आक्रामक लोग हैं. असहमति को आप हवा में उछाला गया कोई ऐसा पदार्थ मानते हैं जिसे बाद में आपकी सहमति वाली जमीन पर ही गिरना है. चूंकि इस समय आप नेक लोग, बेहद सदमे में हैं इसलिए मैं इस मौके का फायदा उठाना चाहता हूं. सबसे पहले तो मैं आप लोगों को बधाई देना चाहता हूं कि आपने तेजपाल के जुर्म की क्या खूब सजा दी....

बुधवार, 09/01/2013

Posted by हारिल On Tuesday, January 8, 2013 0 comments
कभी कभी लगता है तारीखों का कोई महत्व नहीं होता, अगर उसे दर्ज़ न किया जाय। सोचता हूँ हर तारीख को दर्ज़ करूँ, डायरी लिखूँ । क्या मैं शुरुआत कर चुका हूँ शायद! एक सामान्य से बुधवार को खास बनाने का प्रयास। डायरी लिखने पर लिखने के बारे में सोचते हुए मन में बार बार पुराने परिचित का ध्यान आ रहा है उस ने अभी अभी आर चेतन क्रांति की ताज़ा कविता पर सवाल उठाते हुए कहा की क्या यह साहित्य है, बड़ी कोफ्त होती है  वह लड़का कॉलेज के दिनों में कविता करना चाहता था आज कल क्या कर रहा है पता नहीं ... क्या लेखन...

मृत्यु / अनामिका

Posted by हारिल On Sunday, January 6, 2013 0 comments
उसकी उमर ही क्या है !मेरे ही सामने की उसकी पैदाइश है ! पीछे लगी रहती है मेरे कि टूअर-टापर वह मुहल्ले के रिश्ते से मेरी बहन है !चौके में रहती हूँ तो सामने मार कर आलथी-पालथीआटे की लोई से चिड़िया बनाती है !आग की लपट जैसी उसकी जटाएँ मुझ से सुलझती नहीं लेकिन पेशानी पर उसकीइधर-उधर बिखरी दीखती हैं कितनी सुंदर !एक बूंद चम-चम पसीने की गुलियाती है धीरे-धीरे पर टपके- इसके पहले झट पोंछ लेती है उसको वह आस्तीन से अपने ढोल-ढकर...

सच-सच बता दोस्त

Posted by हारिल On Thursday, August 25, 2011 0 comments
निराला भ्रष्टाचार क्या सच में सबसे बड़ा मसला हैयह भेदता और बेधता है कभी अंदर तकरात की नींद उड़ायी है कभी इसनेकभी ले लिया है दिन और दिल का चैन वैसे ही जैसे कभी सवर्ण बिटिया का किसी दलित के बेटू सेया सवर्ण के बेटे का दलित बिटिया से शादी कर लेने के बादमचता है कोहरामहोता है वज्रपातटूट पड़ता है आसमानसिर्फ मां-बाप, भाई-बहन ही नहींफुआ, मौसी, नानी, काकी, मामी...सब नाक-मुंह फुला लेते हैंएक झटके में जनम और खून का रिश्ता तोड़ने लगते हैंसबसे छुपाते रहते हैं या कहते फिरते हैंनाश कर दिया, कहीं का नहीं छोड़ा...