कई बार, कई कहानियों को पढ़ते हुए इस (कु) पाठक के मन में यह प्रश्न उठता रहा है
कि जिस तरह से हर कथा में कई उपकथाएँ होतीं हैं क्या उसी तरह से कई उपकथाओं को जोड़
देने से कोई (सार्थक; अगर लेखक का उसपर यकीन हो तो) कहानी बन
सकती है? यह प्रश्न एक बार फिर मेरे सामने आया जब मैं
मिथिलेश प्रियदर्शी की कहानी “ऐन एंदेर हूं मां नंजक़न” का पाठ कर रहा था। मिथिलेश मेरे/हमारे समय के उन चुनिन्दा अफसाना निगारों
में हैं जिनकी कहानियों में खुद को नोटिस कराने की अद्भुत क्षमता है। “ऐन एंदेर हूं मां नंजक़न” शीर्षक कुडुख...
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